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निकले थे
गमझे में कुछ जरुरी सामान बांध कर
किसी पुराने पेड़ के नीचे बैठकर
बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
गक्क्ड़ भरता बनायेंगे
तपती दोपहर की छाँव में बैठकर
भरपेट खायेंगे
सूखे और विकलांग पेड़ों के पास से
एक हरे पेड़ की तलाश में
भटकते रहे
सोचा हुआ कहाँ पूरा हो पाता है
सच तो यह है कि
हमने
घर के भीतर से
निकलने और लौटने का रास्ता
अपनों को ही काट कर बनाया है ----
"ज्योति खरे"
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