चालीस घंटे
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अपने होने
और अपने जीने की
उम्मीद को
छाती में पकड़े पिता
ऑक्सीजन न मिल पाने की वजह से
अस्पताल में अकेले लेटे
कराह रहे हैं
मेरे और पिता के बीच हुए सांत्वना भरे संवाद
धीरे धीरे गूंगे होते जा रहे हैं
पहली बार आभास हुआ
कि,मेरे भीतर का बच्चा
आदमी बन रहा है
मैं चीखता रहा उनके पास
रहने के लिए
लेकिन विवशताओं ने
मेरी चीख को अनसुना कर
बाहर ढकेल दिया
मैं पिता का
परिचय पत्र,राशनकार्ड,आधारकार्ड
और उनका चश्मा पकड़े
बाहर पड़ी
सरकारी टूटी बेंच पर बैठा
देखता रहा उन लोगों को
जो मेरे पिता की तरह
एम्बुलेंस से उतारकर
अस्पताल के अंदर ले जाए जा रहें हैं
पूरी रात बेंच पर बैठा सोचता रहा
पास आती मृत्यु को देखकर
फ्लास्क में डली मछलियों की तरह
फड़फड़ा रहे होंगे पिता
इस कशमकश में
बहुत कुछ मथ रहा होगा
उनके अंदर
और टूटकर बिखर रहे होंगे
भविष्य के सपने
सुबह
बरामदे में पड़ी
लाशों को देखकर
पूरा शरीर कांपने लगा
मर्मान्तक पीड़ाओं से भरी आवाज़ें
अस्पताल की दीवारों पर
सर पटकने लगीं
मेरे हिस्से के आसमान से
सूरज टूटकर नीचे गिर पड़ा
लाशें शमशान ले जाने के लिए
एम्बुलेंस में डाली जाने लगी
इनमें मेरे पिता भी हैं
सत्ताईस नम्बर का टोकन लिए
शमशान घाट में लगी लंबी कतार में खड़ा हूं
पिता की राख को घर ले जाने के लिए
एक बार मैंने पिता से कहा था
आपने मुझे अपने कंधे पर बैठाकर
दुनियां दिखायी
आसमान छूना सिखाया
एक दिन आपको भी
अपने कंधे पर बैठाऊंगा
उन्होंने हंसेते हुए कहा था
पिता कभी पुत्र के कंधे पर नहीं बैठते
वे हाँथ रखकर
विश्वास पैदा करते हैं
कि, पुत्र अपने हिस्से का बोझ
खुद उठा सके
पिता सही कहते थे
मैं उनको अपने कंधे पर नहीं बैठा सका
पिता कोरोना से नहीं मरे
उन्हें अव्यवस्थाओं ने उम्र से पहले ही मार डाला
चालीस घंटे बाद
उनको लेकर घर ले जा रहा हूँ
मां
थैले में रखे पिता को देखकर
पछाड़ खाकर देहरी में ही गिर जायेंगी
पिता अब कभी घर के अंदर नहीं आयेंगे----
"ज्योति खरे"
21 टिप्पणियां:
विचारों का सुन्दर सम्प्रेषण है आपकी रचना मेंं।
नमस्ते,
आपकी लिखी रचना आज शनिवार १९ अप्रैल २०२१ को शाम ५ बजे साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन " पर आप भी सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद! ,
लाजवाब अभिव्यक्ति इस काल की कालिख की जो पुतती जा रही है शब्दों के ऊपर भी।
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (19-4-21) को "श्वासें"(चर्चा अंक 4042) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
कामिनी सिन्हा
आदरणीय सर,
आशंकाओं और मायूसियों से भरे इस संक्रमण काल में कोरोना ने चहूँ ओर मौत की दहशत है! अनेक अभागे ऐसे होंगे जिन्होंने इस रचना का ये मार्मिक सत्य जीया होगा! एक अभागे बेटे के पिता की आक्समिक मौत का मर्मांतंक शब्द चित्र अनायास आँखें भिगो देता है! ज्योति सर इस तरह के विषय बडी सहजता से रचना में ढालने में माहिर है. पिता का साया अचानक उठ जाता है तो इंसान खुद को बहुत बड़ा और जिम्मेवार मानने लग जाता है! सच है पिता के साथ अबोध बचपन की विदाई हो जाती है ! निशब्द करती रचना के लिए क्या लिखूँ? ये पंक्तियाँ तोे हृदय विदीर्न करती करती हैं------
थैले में रखे पिता को देखकर
पछाड़ खाकर देहरी में ही गिर जायेंगी
पिता अब कभी घर के अंदर नहीं आयेंगे--
कितना दर्द और विवशता है इन पंक्तियों में!!!!
सादर प्रणाम और आभार🙏🙏
बहुत बहुत आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
मार्मिक रचना
आभार आपका
बहुत आभार आपका
आभार आपका
मरनांतक पीड़ा है इस रचना में ,निरिह होता मानव जो साधन हाथ लिए बैठा है पर अपनों के लिए भी कुछ नहीं कर पाता निस्हाय बेबस।
रचना किसी की भी आंखें नम न करें ऐसा नहीं हो सकता।
हृदय स्पर्शी सृजन।
उफ् ..उफ् ...हिल गयी हूँ आपकी रचना पढ़कर ..कविता क्या दर्द और आँसुओं का दस्तावेज है . एक एक शब्द चोट कर रहा है इससे अधिक क्या कहूँ ...नमन आपकी संवेदना को
पिता कोरोना से नहीं मरे
उन्हें अव्यवस्थाओं ने उम्र से पहले ही मार डाला
चालीस घंटे बाद
उनको लेकर घर ले जा रहा हूँ
मां
थैले में रखे पिता को देखकर
पछाड़ खाकर देहरी में ही गिर जायेंगी
पिता अब कभी घर के अंदर नहीं आयेंगे----
बेहद मर्मस्पर्शी... रचना पढ़कर आँखें नम हो आईं।
आभार आपका
बहुत ही मार्मिक दर्द उकेरा है ज्योति जी आपने,बहुत ही सुंदर और आत्मीय भाव पिता के प्रति ।सादर शुभकामनाएं।
बहुत ही सुन्दर
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
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