मंगलवार, मार्च 29, 2022

31 मार्च मीना कुमारी की पुण्य तिथि पर


गम अगरबत्ती की तरह 
देर तक जला करते हैं--
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मीना कुमारी ने हिंदी के जाने माने गीतकार और शायर गुलजार जी से एक बार कहा था
"ये जो एक्टिंग मैं करती हूं उसमें एक कमी है,ये फन,ये आर्ट मुझसे नहीं जन्मा है,ख्याल दूसरे का,किरदार किसी का और निर्देशन भी किसी का,मेरे अंदर से जो जन्मा है,
वह मैं लिखती हूं,जो कहना चाहती हूं,
वही लिखती हूं क्योंकि यह मेरा अपना है."

मीना कुमारी ने अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार जी को दिया,जिसे उन्होंने "नाज" उपनाम से छपवाया,हमेशा तन्हां रहने वाली 
मीना कुमारी ने अपनी कई गज़लों के माध्यम से जीवन के इस दर्द को व्यक्त किया है.

' चांद तन्हां है आसमां तन्हां
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हां
रात देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हां '

' ये मेरे हमनशी चल कहीं और चल 
इस चमन में तो अपना गुजारा नहीं 
बात होती गुलों तक तो
सह लेते हम 
अब काँटों पर भी हक़ हमारा नहीं '

भारतीय फिल्मों में
मीना कुमारी को उच्च कोटि का अभिनेत्री माना जाता है ,क्योंकि वह ऐसा सागर था जिसकी थाह पाना मुस्किल था,बाहर से कौतूहल भरा,भीतर से गंभीर,उनके मन में कितने तूफान उमडते थे,यह कोई नहीं जानता था,बस सब इतना जानते थे कि वे एक अभिनेत्री हैं.
मीना कुमारी वास्तविक प्रेम को सदैव महत्व दिया करती थीं,लेकिन प्रेम मार्ग में जो उन्हें ठोकरें मिली,उसी दर्द को जीते हुए उन्होंने  अभिनय किया और वे
दुखांत भूमिकाओं की रानी बन गयी.
दर्द,तड़प,और आंसुओं से भरी जिंदगी में उनके पास कुछ न था,उनके पास था तो बस उनका अपना शायराना अंदाज.

' मसर्रत पे रिवाजों का सख्त पहरा है  
ना जाने कौन सी उम्मीद पर दिल ठहरा है 
तेरी आँखों से छलकते हुये इस गम की कसम 
ये दोस्त दर्द का रिश्ता बहुत गहरा है '

मीना कुमारी का जन्म १अगस्त १९३२ में हुआ था,इनकी माँ इकबाल बेगम अपने जमाने की प्रसिद्ध अदाकारा थी,मीना कुमारी पर अपनी माँ का प्रभाव पड़ा और इनका झुकाव अभिनय की तरफ बढ़ा,उन दिनों वे गरीबी के दिन से गुजर रहीं थी,उस वक़्त उनकी उम्र करीब आठ साल की रही होगी,गन्दी सी बस्ती में रहने वाली बालिका पर एक दिन स्वर्गीय मोतीलाल की निगाह पड़ी और मीना जी का भाग्य वहीँ से चमकना शुरू हो गया,सर्वप्रथम मीना कुमारी ने "बच्चों का खेल" फिल्म में अभिनय किया,कुछ दिनों तक बाल अभिनेत्री के रूप में अभिनय करने के बाद मीना जी को फिल्मों से किनारा करना पड़ा,कुछ सालों बाद वाडिया ब्रदर्स ने उन्हें फिल्मों में पुनः स्थापित किया,फिर तो मीना जी निरंतर फिल्मो में काम करती रहीं.

' जिन्दगी आँख से टपका हुआ बे रंग कतरा 
तेरे दामन की पनाह पाता तो आंसू होता '

मीना कुमारी जिनका नाम "महज़बी" था दुखांत भूमिकाओं की रानी बन गयी,उनके पास दौलत,
शौहरत थी मगर प्रेम,प्यार नहीं था.
कमाल अमरोही से विवाह किया लेकिन बाद में अलग होना पड़ा,प्रेम की चाह अंत तक उनके ज़ेहन में बसी रही और उन्हें रुलाती रही.

' पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरात की सदके की सहर होती है 
जैसे जागी हुई आँखों में चुभे कांच के ख्वाब 
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है '

भोली सूरत,बड़ी सी प्यारी आँखें और मासूम सा चेहरा,गुलाबी होंठ,सचमुच मीना जी समुद्र में पड़ते चंद्रमा के प्रतिबिम्ब के समान थीं,उनके मन में,प्यार था,सत्कार था,पर उनकी वास्तविक भावनाओं को समझने वाला कोई न था,उनकी आंखें ही बहुत कुछ बोलती थीं.

' बॊझ लम्हों का लिए कंधे टूटे जाते हैं           बीमार रूह का यह भार तुम कहीं रख दो 
सदियां गुजरी हैं कि यह दर्द पपोटे झुके
तपते माथे पर जरा गर्म हथेली रख दो '

गमों की राह से गुजरी
मीना जी वास्तव में एक हीरा थीं,वे प्यार जुटाना चाहती थी,प्यार पाना चाहती थी,प्यार बांटना चाहती थीं,इसी प्यार की प्यास ने उन्हे अंत तक भटकाया.
                      
' यूँ तेरी राहगुजर से दीवाना बार गुजरे
कांधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुजरे 
मेरी तरह सम्हाले कोई तो दर्द जानूं
एक बार दिल से होकर परवर दिगार गुजरे 
अच्छे लगे हैं दिल को तेरे ज़िले भी लेकिन
तू दिल को हार गुजरा
हम जान हार गुजरे '

एक बेहतरीन अदाकारा,एक बेहतरीन शायरा,अपने चाहने वालों को अपना प्यार,
दर्द और कुछ नगमें दे गयीं,ऐसा लगता है मीना जी आज भी तन्हाई में रह रहीं हैं और अपने चाहने वालों से कह कह रहीं हैं----

' तू जो आ जाये तो इन जलती हुई आँखों को
तेरे होंठों के तले ढेर सा आराम मिले            तेरी बाहों में सिमटकर तेरे सीने के तले 
मेरी बेखाव्ब सियाह रातों को आराम मिले

एक पाकीज़ा शायरा की यादें, 
प्यार करने वालों के दिलों में हमेशा जिन्दा रहेंगी--

◆ज्योति खरे

गुरुवार, मार्च 24, 2022

सन्नाटे से संवाद


कुएं के पास 
उसके आने के इंतज़ार में
घंटों खड़ी रहती 
बरगद की छांव तले बैठकर
मन में उभरती 
उसकी आकृति को
छूने की कोशिश करती थी
तालाब में कंकड़ फेंकते समय
यह सोचती थी
कि,वह आकर 
मेरा नाम पूछेगा

वह आसपास मंडराता रहा
और मुझसे मिलने
मेरे पास बैठने से
कतराता रहा 

दशकों बाद
एकांत में बैठी मैं
घूरती हूं सन्नाटे को
और सन्नाटा 
घूरता है मुझे
इस तरह से
एक दूसरे को घूरने का मतलब
कभी समझ में आया ही नहीं  

समझ तो तब आया
जब सन्नाटे ने चुप्पी तोड़ी
उसने पूछा
एकांत में बैठकर
किसे देखती हो
मैंने कहा
जिसने मुझे
अनछुए ही छुआ था
उसकी छुअन को पकड़ना चाहती हूं 

काश!
वह एक बार आकर 
मुझे फिर से छुए
और मेरी आँखें
मुंद जाये गुदगुदी के कारण--

◆ज्योति खरे

रविवार, मार्च 20, 2022

आजकल वह घर नहीं आती

आजकल वह घर नहीं आती
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धूप चटकती थी तब
लाती थी तिनके
घर के किसी सुरक्षित कोने में
बनाती थी अपना 
शिविर घर
जन्मती थी चहचहाहट
गाती थी अन्नपूर्णा के भजन
देखकर आईने में अपनी सूरत
मारती थी चोंच

अब कभी कभार
भूले भटके
आँगन में आकर
देखती है टुकुर मुकुर
खटके की आहट सुनकर
उड़ जाती है फुर्र से

शायद उसने धीरे धीरे
समझ लिया 
आँगन आँगन
जाल बिछे हैं
हर घर में
हथियार रखे हैं
तब से उसने 
फुदक फुदक कर
आना छोड़ दिया है---

◆ज्योति खरे
#विश्वगौरैयादिवस

मंगलवार, मार्च 15, 2022

टेसू और फागुन

टेसू और फागुन
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कटे हुए टेसू का हालचाल
पूंछने 
सालभर में एक बार आता है फागुन
टेसू फागुन से मिलते ही
टपकाने लगता है
विकास के पांव तले कुचले
खून से सने 
अपने फूलों के रंग

कहता है अपने दोस्त
फागुन से 
तुम
प्रेम के रंगों से भरे 
रहस्यों को
शहर की गलियों में
रह रहे लोगों को समझाओ
कुझ दिन झोपड़ पट्टी में भी गुजारो
भूखे बच्चों से बात करो
उजड़ रहे गांव में जाओ
जहां पैदा तो होता है अनाज
पर रोटियां की कमी है
एक चुटकी गुलाल
मजदूरों के गाल पर भी
मलो
क्योंकि इन्हें सम्हलने में लंबा समय लगेगा
मेरा क्या
मैं अपने कटे जाने की
पीड़ा से
एक दिन मुक्त हो जाऊंगा
सूखकर 
मिट्टी में मिल जाऊंगा

फागुन
तुम्हें हर साल आना है
क्यों सूख रहे हैं
प्रेम के रंग
उनका जवाब देना है ---

◆ज्योति खरे

सोमवार, मार्च 07, 2022

उपेक्षा के दौर से गुजर रहीं मजदूर नारियां

संदर्भ महिला दिवस
उपेक्षा के दौर से गुजर रही हैं मजदूर नारियां
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नारी की छवि एक बार फिर इस प्रश्न को जन्म दे रही है कि,क्या भारतीय नारी संस्कारों में रची बसी परम्परा का निर्वाह करने वाली नारी है,या वह नारी है जो अपने संस्कारों को कंधे पर लादे मजदूरी का जीवन व्यतीत कर रही है.
परम्परागत भारतीय नारी और दूसरी तरफ बराबरी के दर्जे का दावा करने वाली आधुनिक भारतीय नारियां हैं,पर इनके बीच है, हमारी मजबूर मजदूर उपेक्षा की शिकार एक अलग छवि वाली नारी,इस नारी के विषय में कोई बात नहीं करता है.
नारी की नियति सिर्फ सहते रहना है-यह धारणा गलत है,इस धारणा को बदलने की आवाज चारों तरफ उठ रही है,आज की नारी इस धारणा से कुछ हद तक उबरी भी है.नारी किसी भी स्तर पर दबे या अन्याय सहे यह तेजी से बदल रहे समय में उचित नहीं है,लेकिन एक बात आवश्यक है कि इस बदलते परिवेश में इतना तो काम होना चाहिए कि मजदूर नारियों की स्थितियों को भी बदलने का कार्य होना चाहिए.
एक ही देश में,एक ही वातावरण में,एक जैसी सामाजिक स्थितियों में जीने वाली नारियों में इतनी भिन्नता क्यों?
वर्तमान में नारियों के पांच वर्ग हो गये हैं-----
१- नारियां जो पुर्णतः संपन्न हैं न नौकरी करती हैं न घर के काम काज
२- नारियां जो अपनी आर्थिक स्थिति को ठीक रखने के लिये नौकरी करती हैं अथवा सिलाई,बुनाई,ब्यूटी पार्लर आदि चलाती हैं
३- नारियां जो केवल अपना समय व्यतीत करने के लिये साज श्रृंगार के लिये,अधिक धन कमाने के लिये नौकरी करती हैं
४- नारियां जो केवल गृहस्थी से बंधीं हैं
५- नारियां जो अपना,अपने बच्चों का पेट भरने,घर को चलाने, मजदूरी करती हैं,
ये नारियां हमारे सामाजिक वातावरण में चारों तरफ घूमती नजर आती हैं 
पांचवे वर्ग की नारी  आर्थिक और मानसिक स्थिति से कमजोर है,ऐसी नारियों का जीवन प्रतारणाओं से भरा होता है,कुंठा और हीनता से जीवन जीने को विवश ये मजदूर नारियां तथाकथित नारी स्वतंत्रता अथवा नारी मुक्ति का क्या मूल्य जाने,इन्हें तो अपने पेट के लिये मेहनत मजदूरी करते हुए जिन्दगी गुजारना पड़ती है.
नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान फार विमेन,सरकार के प्रयासों से तैयार एक योजना है,जिसे बनाने में महिला संगठनों की भागीदारी है,इसको बनाने के पहले महिलाओं की समस्या को सात खण्डों में बांटा गया है,रोजगार,स्वास्थ,शिक्षा,
संस्कृति,कानून,सामाजिक उत्पीडन,ग्रामीण विकास तथा राजनीती में हिस्सेदारी.
वूमन लिबर्टी अर्थात नारी मुक्ति की चर्चायें चारों ओर सुनाई देती हैं,बड़ी बड़ी संस्थायें नारी स्वतंत्रता की मांग करती हैं,स्वयं नारियां नारी मुक्ति के लिये आवाज उठाती हैं,आन्दोलन करती हैं,सभायें करती हैं,बडे बडे बेनर लेकर नारे लगाती हैं,
विचारणीय प्रश्न यह है कि मजदूरी कर जीवन चलाने वाली नारी अपना कोई महत्त्व नहीं रखती,इसके लिए क्या हो रहा है,क्या देश के महिला संगठन इनके उत्थान के लिए कभी आवाज उठायेंगे.
आज भी अधिकांश नारियां मजदूरी करती हैं, जो उपनगर या गाँव में रहती हैं और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की हैं,उनकी मजदूरी के पीछे भी स्वतंत्र अस्तित्व की चाह उतनी ही है, जितनी आधुनिक सामाजिक जीवन जीने वाली नारियों में है.
गाँव में ज्यादातर नारियां गरीब परिवारों की हैं, जो मजदूरों के रूप में खेतों पर,शहर में रेजाओं के रूप में,और कई अन्य जगह काम करती हैं,जी जान लगाकर दिनभर मेहनत करती हैं, पर वेतन पुरषों की तुलना में कम मिलता है,पिछले तीन दशकों में बनी अधिकांश कल्याणकारी योजनाओं के ज्यादातर फायदे उन्हीं नारियों के लिये हैं,जो उच्च आय में हैं,उच्च शिक्षा प्राप्त हैं.
उच्च वर्ग की नारियां मुक्त से ज्यादा मुक्त हैं ,किटी पार्टियाँ करती हैं,क्लबों में डांस करती हैं,फैशन में भाग लेती हैं,इनकी संख्या कितनी है,क्या इन्ही गिनी चुनी नारियों की चर्चा होती है,सही मायने मैं तो चर्चा मजदूर नारियों की होनी चाहिये.
महिला दिवस हर वर्ष आता है और चला जाता है,मजदूर नारियां ज्यों की त्यों हैं,नारी मुक्ति की बात तभी सार्थक होगी कि जब "महिला मजदूर"के उत्थान की बात हो,वर्ना ऐसे "महिला दिवस"का क्या ओचित्य जिसमें केवल स्वार्थ हो.

◆ज्योति खरे