सामने वाली
बालकनी से
अभी अभी
उठा कर ले गयी है
पत्थर में लिपटा कागज
शाम ढले
छत पर आकर
अंधेरे में
खोलकर पढ़ेगी कागज
चांद
उसी समय तुम
उसके छत पर उतरना
फैला देना
दूधिया उजाला
तभी तो वह
कागज में लिखे
शब्दों को पढ़ पाएगी
फिर
शब्दों के अर्थों को
लपेटकर चुन्नी में
हंसती हुई
दौड़कर छत से उतर आएगी
मैं
अपनी बालकनी में
उसके
अभिवादन के इंतजार में
एक पांव पर खड़ा हूँ----
◆ज्योति खरे
11 टिप्पणियां:
वाह
आभार आपका
वाह ! क्या बात है ..... प्रेमपगी अभिव्यक्ति ।
बेहद रूमानी एहसासों से भरी खूबसूरत अभिव्यक्ति।
प्रणाम सर
सादर।
अत्यंत सुन्दर भावसिक्त कृति ।
बहुत खूब
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
क्या बात है ?
नव नवीन एहसासों का नव अंकुरण करती बेहद कोमल छुईमुई सी अभिव्यक्ति । सुंदर प्रेम कविता ।
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