गुरुवार, जून 23, 2022

फुरसतिया बादल

फुरसतिया बादल
*************
बजा बजा कर
ढोल नगाड़े
फुरसतिया बादल आते
बिजली के संग
रास नचाते
बूंद बूंद चुंचुआते--

कंक्रीट के शहर में
ऋतुयें रहन धरी
इठलाती नदियों में
रोवा-रेंट मची

तर्कहीन मौसम अब
तुतलाते हकलाते--

चुल्लू जैसे बांधों में
मछली डूब रही
प्यासे जंगल में पानी
चिड़िया ढूंढ रही

प्यासी ताल-तलैयों को
रात-रात भरमाते--

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जून 09, 2022

किससे पूछें किसका गांव

किससे पूछें किसका गांव
आधी धूप और आधी छांव

जंगलों में ढूंढ रहे
प्रणय का फासला
अंदर ही अंदर
घाव रहे तिलमिला
सड़कों की दूरियां 
पास नहीं आती हैं
अपनी तो आंतें
घास नहीं खाती हैं

जीने की ललक ढूंढ रही ठांव--

अपहरित हो गयी
खुद ही की चाह
कौन जाने कितने 
गिनना है माह
सबके सामने है
सबकी परिस्थितियां
रह रह बदल रहा
मौसम स्थितियां

दिखते नहीं हैं अपने पांव--

मांग रहे सन्नाटा
करने अनुसंधान
चुप्पी फिर हो गयी
कौन बने प्रधान
उड़ रहा लाश का
बसाता धुआं
सूख गया एक
चिल्लाता कुआं

मौन झील में डूब गयी नांव
किससे पूछे किसका गांव--

◆ज्योति खरे

रविवार, जून 05, 2022

विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते हुए

निकले थे 
गमझे में
कुछ जरुरी सामान बांध कर   
कि किसी पुराने पेड़ के नीचे 
बैठेंगे
और बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
पेड़ की छांव में
गक्क्ड़ भरता बनाकर
भरपेट खायेंगे 

हरे और बूढ़े
पेड़ की तलाश में
विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते रहे

सोचा हुआ कहां
पूरा हो पाता है 

सच तो यह है कि 
हमने 
घर के भीतर से 
निकलने और लौटने का रास्ता 
अपनों को ही काट कर बनाया है----

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जून 02, 2022

तपती गर्मी जेठ मास में

अनजाने ही मिले अचानक 
एक दोपहरी जेठ मास में 
खड़े रहे हम बरगद नीचे 
तपती गरमी जेठ मास में-

प्यास प्यार की लगी हुयी
होंठ मांगते पीना 
सरकी चुनरी ने पोंछा 
बहता हुआ पसीना 

रूप सांवला हवा छू रही 
बेला महकी जेठ मास में--

बोली अनबोली आंखें 
पता मांगती घर का 
लिखा धूप में उंगली से 
ह्रदय देर तक धड़का 

कोलतार की सड़कों पर   
राहें पिघली जेठ मास में---   

स्मृतियों के उजले वादे 
सुबह-सुबह ही आते 
भरे जलाशय शाम तलक 
मन के सूखे जाते 

आशाओं के बाग खिले जब  
यादें टपकी जेठ मास में-----

"ज्योति खरे"