निकले थे
गमझे में
कुछ जरुरी सामान बांध कर
कि किसी पुराने पेड़ के नीचे
बैठेंगे
और बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
पेड़ की छांव में
गक्क्ड़ भरता बनाकर
भरपेट खायेंगे
हरे और बूढ़े
पेड़ की तलाश में
विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते रहे
सोचा हुआ कहां
पूरा हो पाता है
सच तो यह है कि
हमने
घर के भीतर से
निकलने और लौटने का रास्ता
अपनों को ही काट कर बनाया है----
◆ज्योति खरे
23 टिप्पणियां:
सटीक प्रस्तुति
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(६-०६-२०२२ ) को
'समय, तपिश और यह दिवस'(चर्चा अंक- ४४५३) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
सच तो यह है कि
हमने
घर के भीतर से
निकलने और लौटने का रास्ता
अपनों को ही काट कर बनाया है----
आने ही तो काटते हैं रास्ते को , गहन अभव्यक्ति ।
आपकी लिखी रचना 6 जून 2022 को
पांच लिंकों का आनंद पर... साझा की गई है
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
संगीता स्वरूप
वाह वाह!!
पर्यावरण दिवस पर एक गहरी अनुभूति लिए सुंदर रचना ।
वाह!बेहतरीन!
विकलांग पेड क्या गज़ब का बिंब उकेरे हैं सर।
गहन चिंतन से उपजी धारदार अभिव्यक्ति।
प्रणाम
सादर।
वृक्षों से अटूट लगाव न जाने आज के युग में कहाँ खो गया …,मन को छूती गहन अभिव्यक्ति ।
चिंतनीय अभिव्यक्ति।
वाह बढिया अभिव्यक्ति सर
बहुत आभार आपका
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति।
आभार आपका
बहुत आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
सुन्दर अभिव्यक्ति।
भावपूर्ण अभिव्यक्ति
बहुत सुंदर! एक कठोर सत्यको परिभाषित करती रचना।
मैंने कल भी टिप्पणी की थी आज नहीं दिखाई दे रही।
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