शनिवार, दिसंबर 15, 2012

सृजन के औजार--------

आरी
काटती है लकड़ी
वसूला
देता है आकर
रन्दा
छीलता है
चिकना करता है
छेनी
तराशती है पत्थरों को-----

यह सब औजार
कारीगरों के हाथों में आकर
दुनियां को
एक नए शिल्प में
ढालने की
ताकत रखते हैं------

लेकिन अब
कारीगरों के हाथ
काट दिये गये हैं------

बदल दिये गये हैं
सृजन के औजार
हथियारों में---------

"ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )



सोमवार, दिसंबर 10, 2012

सपनों ने

सपनों ने
गली की पुलिया पर बैठकर
यह तय किया
अब नहीं दिखेंगे-------

सपने कोलाहल में
कैसे जीवित रह पायेंगे
यह सोचकर
सपनों ने छोड़ दिया है
भीड़ में रहना-------

सपनों ने कभी नहीं चाहा
कि दंगा हो
पैदा हो नफरत
सपने तो चाहते हैं
रहना अलहदा
हर बुरे ख्याल से--------

सपने
सदभाव की आँखों में
रहेंगे
वहीं तय करेंगे
दिखें या ना दिखें---------

"ज्योति खरे"

रविवार, दिसंबर 02, 2012

यूकेलिप्टस-------------

यूकेलिप्टस-------------
एक दिन तुम और मैं
शाम को टहलते
उंगलियां फसाये
उंगलियों में
निकल गये शहर के बाहर-----

तुमने पूछा
क्या होता है शिलालेख
मैने निकाली तुम्हारे बालों से
हेयरपिन
लिखा यूकेलिप्टस के तने पर
तुम्हारा नाम----

तुमने फिर पूछा
इतिहास क्या होता है
मैने चूम लिया तुम्हारा माथा-----

खो गये हम
अजंता की गुफाओं में
थिरकने लगे
खजुराहो के मंदिर में
लिखते रहे उंगलियों से
शिलालेख
बनाते रहे इतिहास--------

आ गये अपनी जमीन पर
चेतना की सतह पर
अस्तित्व के मौजूदा घर पर-----

घर आकर देखा था दर्पण
उभरी थी मेरे चेहरे पर
लिपिस्टिक से बनी लकीरें
मेरा चेहरा शिलालेख हो गया था
बैल्बट्स की मैरुन बिंदी
चिपक आयी थी
मेरी फटी कालर में
इतिहास का कोई घटना चक्र बनकर-------

अब खोज रहा हूं इतिहास
पढ़ना चाहता हूं शिलालेख----

अकेला खड़ा हूं
जहां बनाया था इतिहास 
लिखा था शिलालेख
इस जमीन पर
खोज रहा हूं ऐतिहासिक क्षण-------

लोग कहते हैं
यूकेलिप्टस पी जाता है
सतह तक का पानी
सुखा देता है जमीन की उर्वरा-------

शायद यही हुआ है
मिट गया शिलालेख
खो गया इतिहास-------

अब फिर लिख सकेंगे इतिहास
अपनी जमीन का---

क्या तुम कभी
देखती हो मुझे
अपने मौजूदा जीवन के आईने में
जब कभी तुम्हारी
बिंदी,लिपिस्टिक
छूट जाती है
इतिहास होते क्षणों में---------

            "ज्योति खरे"
   



 
  



गुरुवार, नवंबर 29, 2012

गुलमोहर-----------

गुलमोहर------

माना कि तुम्हारे आँगन में
जूही,चमेली,रातरानी
महकती है
पर
तुम अपने आँगन में
बस
एक गुलमोहर लगा लो
सौन्दर्य का जादू जमा लो-------

दोपहर की धूप में भी देहकर
फूलता है गुलमोहर
देता है छांव------

तपती जेठ की दोपहरी में
जब कोई खटखटायेगा 
तुम्हारा दरवाजा
आओगी तुम
"वातानुकूलित"कमरे से निकलकर
उस तपते समय में
तुम्हे और तुम्हारे आगंतुक को
गुलमोहर देगा छांव-------

लाल सुबह के रंग लिये
गुलमोहर के फूल
आत्मिक सौन्दर्य के धनी होकर भी
सुगंध से परे हैं
शान से खिलते हैं-------

धूप से जूझते हैं
तब
जब
तुम्हारे "इनडोर प्लांट"
आंधियों से सूखते हैं-------

तुम्हारे तपे हुये बंगले की दीवारों के बीच
तुम्हारे प्यार भरे सहलाव,अपनत्व में भी
तुम्हारे फूल
कायम नहीं रह पाते
तुम्हारी ही तरह
"सुविधाजीवी"हैं
तुम्हारे फूल--------

तुम गुलमोहर हो सकते हो
किसी आतप से झुलसे जीवन के लिये
छांव दे सकते हो
किसी जलते मन के लिये-------

तुम्हे बाजार मिल जायेगा
सुगंध का
सुविधा से------

तुम जूही,चमेली,गुलाब का
सुगंधित अहसास खरीद सकती हो
पर
गुलमोहर की छांव
नहीं मिलती बाजार में
नहीं बनता इसका "सेंट"

यह तो बस खिलता है
सौन्दर्य की सुगंध भरता है
आंखों से मन में
जीवन में--------

तुम भी गुलमोहर हो सकते हो
बस
अपने आंगन में
एक गुलमोहर लगा लो
सौन्दर्य का जादू जमा लो------------

                  "ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं-------से )
  



 



 




मंगलवार, नवंबर 27, 2012

रिश्ते जमीन के---------

बिखरे पड़े हैं क़त्ल से
रिश्ते जमीन के-----
मुखबिर बता रहे हैं
किस्से यकीन के------

चाहतों के मकबरे पर
शाम से मजमा लगा है
हाथ में तलवार लेकर
कोई तो दुश्मन भगा है

गश्त दहशत की लगी है
किस तरह होगी सुबह
खून के कतरे मिले हैं
फिर से कमीन के-------

चाँद भी शामिल वहां था
सूरज खड़ा था साथ में
चादर चढ़ाने प्यार की
ईसा लिये था हाथ में

जल रहीं अगरबत्तियां
खुशबू बिखेरकर
रेशमी धागों ने बांधे
रिश्ते महीन के-------

           "ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं------से )

 

शुक्रवार, नवंबर 23, 2012

गालियां देता मन ......

गालियां देता मन
देह्शत भरा माहौल
चुप्पियां दरवाजा
बंद करेंगी
खिडकियां देंगी खोल-----

आदमी की
खाल चाहिये
भूत पीटें डिडोरा---
मरी हुई कली का
खून चूसें भौंरा---

कहती चौराहे की
बुढ़िया
मेरे जिस्म का
क्या मोल-------

थर्मामीटर
नापता
शहर का बुखार---
एकलौते लडके का
व्यक्तिगत सुधार---

शामयाने में
तार्किक बातें
सड़कों में बजता
उल्टा ढोल---------
          
         "ज्योति खरे"
( उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )
  
      

सोमवार, नवंबर 05, 2012

करवा चौथ का चाँद उसी दिन रख दिया था हथेली पर

करवा चौथ का चाँद
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने---------

सूरज से चमकते गालों पर
पपड़ाए होंठों पर
रख दिये थे 
कई कई चाँद----
बदतमीज़ कहते
भाग रही थी तुम
पकड़ लिया था
चुनरी का कोना
झीना,झपटी में
फट गया कोना-----

करवा चौथ का चाँद
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन---
विरोधों के बावजूद
ओढ़ ली थी तुमने
उधारी में खरीदी
मेरे अस्तित्व की चुनरी--------

अब
अपने प्रेम के आँगन में
खड़ी होकर
आटे की चलनी से
क्यों देखती हो चाँद-------

तुम्हारी मुट्ठी में कैद है
तुम्हारा चाँद--------
                  "ज्योति खरे"

(उंगलियां कांपती क्यों हैं-----से )