रविवार, जून 02, 2019

सावित्री का प्रेम आज भी जिंदा है-----


डंके की चोट पर
ऐंठ कर पकड़ ली
मृत्यु के देवता की कालर
विद्रोह का बजा दिया बिगुल 
निवेदनों की लगा दी झड़ी

गहरे धरातल से
खींच कर ले आयी
अपने प्रेम को
अपनी आत्मा को

बांध कर कच्चा सूत
बरगद की पीठ पर
ले गयी अपनी आत्मा को
सपनों की दुनियां से परे
नफरतों के वास्तविक गारे से बनी
कंदराओं में

अपने पल्लू में लपेटकर
ले आयी
शाश्वत प्रेम को

सावित्री होने का सुख
कच्चे सूत में पिरोए
पक्के मोतियों जैसा
होता है---------

"ज्योति खरे"

रविवार, मई 26, 2019

तपती गरमी जेठ मास में ------

अनजाने ही मिले अचानक
एक दोपहरी जेठ मास में
खड़े रहे हम बरगद नीचे
तपती गरमी जेठ मास में-

प्यास प्यार की लगी हुयी
होंठ मांगते पीना
सरकी चुनरी ने पोंछा
बहता हुआ पसीना

रूप सांवला हवा छू रही
बेला महकी जेठ मास में--

बोली अनबोली आंखें
पता मांगती घर का
लिखा धूप में उंगली से
ह्रदय देर तक धड़का

कोलतार की सड़कों पर  
राहें पिघली जेठ मास में---  

स्मृतियों के उजले वादे
सुबह-सुबह ही आते
भरे जलाशय शाम तलक
मन के सूखे जाते

आशाओं के बाग खिले जब 
यादें टपकी जेठ मास में-----

"ज्योति खरे"

सोमवार, मई 20, 2019

नदी और पहाड़


अच्छे दोस्त हैं
नदी और पहाड़
दिनभर एक दूसरे को धकियाते
खुसुर-पुसुर बतियाते हैं

रात के गहन सन्नाटे में
दोनों
अपनी अपनी चाहतों को
सहलाते पुचकारते हैं

चाहती है नदी
पहाड़ को चूमते बहना
और पहाड़
रगड़ खाने के बाद भी
टूटना नहीं चाहता

दोनों की चाहतों में
दुनियां बचाने की
चाहते हैं------

"ज्योति खरे"

रविवार, मई 12, 2019

अम्मा कभी नहीं हुई बीमार

अम्मा
सुबह सुबह
फटा-फट नहाकर
अध-कुचियाई साड़ी लपेटकर
तुलसी चौरे पर
सूरज को प्रतिदिन बुलाती
आकांक्षाओं का दीपक जलाती

फिर
दर्पण के सामने खड़ी होकर
अपने से ही बात करतीं
भरती चौड़ी लम्बी मांग
सिंदूर की बिंदी माथे पर लगाते-लगाते
सोते हुये पापा को जगाती
सिर पर पल्ला रखते हुए
कमरे से बाहर निकलते ही
चूल्हे-चौके में खप जातीं--

तीजा,हरछ्ट,संतान सातें,सोमवती अमावस्या,वैभव लक्ष्मी
जाने अनजाने अनगिनत त्यौहार में
दिनभर की उपासी अम्मा
कभी मुझे डांटती
दौड़ती हुई छोटी बहन को पकड़ती
बहुत देर से रो रहे मुन्ना को
अपने आँचल में छुपाये
पालथी मार कर बैठ जातीं थी

दिनभर की उपासी अम्मा को
ऐसे ही क्षणों में मिलता था आराम---

अम्मा कभी नहीं हुई बीमार
वे जानती थीं कि
कौन ले जायेगा अस्पताल
वर्षों हो गये बांये पैर की ऐड़ी में दर्द हुए
किसने की फिकर
किसको है चिंता
शाम होते ही
दादी को चाहिए पूजा की थाली
पापा को चाहिये आफिस से लौटते ही खाना
दिनभर बच्चों के पीछे भागते
गायब हो जाता था ऐड़ी का दर्द--

कभी-कभी बहुत मुस्कराती थीं अम्मा
जिस दिन पापा
आफिस से, देर से लौटते समय
ले आते थे मोंगरे की माला
छेवले के पत्ते में लिपटा मीठा पान
उस दिन अम्मा
दुबारा गुंथती थी चोटी
खोलती थी "श्रृंगारदान"
लगाती थी "अफगान" स्नो
कर लेती थीं अपने होंठ लाल
सुंदर अम्मा और भी सुंदर हो जातीं
उस शाम महक जाता था
समूचा घर--

अम्मा जैसे ही जलाती थीं
सांझ का दीपक
जगमगा जाता था घर
महकने लगता था कोना कोना
सजी संवरी अम्मा
फिर जुट जातीं थीं रात की ब्यारी में
चूल्हा,चौका,बरतन समेटने में

लेट जाती थी,थकी हारी 
चटाई बिछाकर अपनी जमीन पर--

अम्मा के पसीने से सनी मिट्टी से बने घर में
तुलसी चौरे पर रखा
उम्मीदों का दीपक
आज भी जल रहा है
आकांक्षाओं का सूरज
प्रतिदिन ऊग रहा है

जीवन का सृजन
अम्मा से ही प्रारंभ होता है-----

"ज्योति खरे"

रविवार, अप्रैल 14, 2019

इन दिनों


नंगी प्रजातियों की नंगी जबान
थूककर गुटक रहें अपने बयान-

फेंक रहे लपेटकर मुफ्त आश्वासन
मनभावन मुद्दों की खुली है दुकान----

देश को लूटने की हो रही साजिश
बैठे गये हैं बंदर बनाकर मचान--

उधेड़ दो चेहरों से मखमली खाल
चितकबरे चेहरे बने न महान--

पी गये चचोरकर सारी व्यवस्थायें
सूख गए खेत खलियान और बगान--

"ज्योति खरे"

बुधवार, अप्रैल 10, 2019

ठूंठ पेड़ से क्या मांगे

बरगद जैसे फैले
बरसों जीते
चन्दन रहते
और विष पीते --

मौसम गहनों जैसा
करता मक्कारी
पूरे जंगल की बनी
परसी तरकारी
नंगे मन का भेष धरें
जीवन जीते----

उपहार मिला गुच्छा
चमकीले कांटों का
वार नहीं सहता मन
फूलों के चांटों का
हरियाली को चरते
शहरी चीते----

ठूंठ पेड़ से क्या मांगे
दे दो मुझको छाँव
दिनभर घूमें प्यासे
कहाँ चलाये नांव
नर्मदा के तट पर
धतूरा पीते-----

"ज्योति खरे"

सोमवार, अप्रैल 01, 2019

मूर्ख दिवस पर -- समझदारी की बातें

चिल्लाकर मुहं खोल बे
खुल्म खुल्ला बोल बे

नेताओं की तोंद देखकर
पचका पेट टटोल बे

सुरा सुंदरी और सत्ता का
स्वाद चखो बकलोल बे

सत्ता नाच रही सड़कों पर
चमचे बजा रहे ढोल बे

बहुमत का फिर हंगामा 
बता दे अपना मोल बे

भिखमंगे जब बहुमत मांगें 
खोल दे इनकी पोल बे

तेरे बूते राजा और रानी
दिखा दे अपना रोल बे

बेशकीमती लोकतंत्र को
फोकट में मत तॊल बे

"ज्योति खरे"