शुक्रवार, अक्टूबर 10, 2014

करवा चौथ का चाँद-------

चाँद तो मैंने
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने--

सूरज से चमकते गालों पर
पपड़ाए होंठों पर
रख दिये थे मैंने
कई कई चाँद----


चाँद तो
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
तमाम विरोधों के बावजूद
ओढ़ ली थी तुमने
उधारी में खरीदी
मेरे अस्तित्व की चुन्नी--


और अब
क्यों देखती हो
प्रेम के आँगन में
खड़ी होकर
आटे की चलनी से
चाँद----


तुम्हारी तो मुट्ठी में कैद है
तुम्हारा अपना चाँद----


"ज्योति खरे" 

चित्र - गूगल से साभार

बुधवार, अक्टूबर 08, 2014

शरद का चाँद -------

 
ख़ामोशी तोड़ो
सजधज के बाहर निकलो
उसी नुक्कड़ पर मिलो
जहाँ कभी बोऐ थे हमने
शरद पूर्णिमा के दिन
आँखों से रिश्ते -----


और हाँ !
बांधकर जरूर लाना
अपने दुपट्टे में
वही पुराने दिन
दोपहर की महुआ वाली छांव
रातों के कुंवारे रतजगे
आंखों में तैरते सपने
जिन्हें पकड़ने
डूबते उतराते थे अपन दोनों -----


मैं भी बाँध लाऊंगा
तुम्हारे दिये हुये रुमाल में
एक दूसरे को दिये हुए वचन
कोचिंग की कच्ची कॉपी का
वह पन्ना
जिसमें
पहली बार लगायी
लिपिस्टिक लगे होंठों के निशान
आज भी
पवित्र और सुगंधित है-----


क्योंकि अब भी तुम
मेरे लिए शरद का चाँद हो------
                                     "ज्योति खरे"  
 
 
चित्र- गूगल से साभार

रविवार, अक्टूबर 05, 2014

हादसों के घाव से रिस रहे खून------


रौशनियों की चकाचौंध में
उत्साह से भरा उत्सव
चमचमाता उल्लास
अचानक
अंधाधुंध भागते पैरों के तले
कुचल जाता है ----
 
ऐसा क्या हो जाता है
कि भीड़ अपनी पहचान मिटाती
भगदड़ का रुप ले लेती है
और समूचा वातावरण
मासूम, लाचार और द्रवित हो जाता है----
 
कुछ तो है
जिसके नेपथ्य में
अदृश्य इशारे
हादसों की कहानी गढ़ते हैं
और हमारी तमाम सचेतनाओं के बावजूद
हमारी तलाश से परे हैं
इनकी खामोश भूमिका
जीवन मूल्यों के टकराव का
शंखनाद करती हैं ----
 
हम आसमान को गिरते समय 
टेका लगाकर
धराशायी होने से बचाने वाले
और
हादसों के घाव से रिस रहे खून को
पोंछने वाले
खानदानी परिवार के सदस्य हैं ----
                                            
                                                 "ज्योति खरे"
 चित्र गूगल से साभार