बुधवार, अक्तूबर 08, 2014

शरद का चाँद -------

 
ख़ामोशी तोड़ो
सजधज के बाहर निकलो
उसी नुक्कड़ पर मिलो
जहाँ कभी बोऐ थे हमने
शरद पूर्णिमा के दिन
आँखों से रिश्ते -----


और हाँ !
बांधकर जरूर लाना
अपने दुपट्टे में
वही पुराने दिन
दोपहर की महुआ वाली छांव
रातों के कुंवारे रतजगे
आंखों में तैरते सपने
जिन्हें पकड़ने
डूबते उतराते थे अपन दोनों -----


मैं भी बाँध लाऊंगा
तुम्हारे दिये हुये रुमाल में
एक दूसरे को दिये हुए वचन
कोचिंग की कच्ची कॉपी का
वह पन्ना
जिसमें
पहली बार लगायी
लिपिस्टिक लगे होंठों के निशान
आज भी
पवित्र और सुगंधित है-----


क्योंकि अब भी तुम
मेरे लिए शरद का चाँद हो------
                                     "ज्योति खरे"  
 
 
चित्र- गूगल से साभार

कोई टिप्पणी नहीं: