कई वर्षों से इकठ्ठे
टुकनियां भर निवेदनों को
एक ही झटके में झटककर
मन के हवालात में
अपराधियों की कतार में
खड़ा कर दिया
मैंने तो कभी नहीं किया निवेदन
ना ही दिए कोई संकेत
ना ही देखा समूची पलकों को खोलकर
कनखियों से देखना
अपराध है क्या ?
तुम भी तो खरोंच देती हो
कनखियों से देखते समय
मेरी मन की देह को
और भींग जाती हो
भीतर तक
ऊग जाती हैं
तुम्हारे चेहरे पर बूंदें
पोंछकर बूंदों को
अपराधी ठहराना गुनाह है
स्वीकार कर लो
नए बरस की नयी कामनायें
ताकि प्रेम के खारे समंदर में
आ जाये मिठास
इस बरस और कई कई बरस ----
"ज्योति खरे "
चित्र- गूगल से साभार