लपेटकर रख लिया है
तुम्हारे
ऊनी आसमानी शाल में
पिछला साल
उम्मीद थी
कि, बर्फ़ीली हवाओं में
ओढ़ कर बैठेंगें
और जाती हुई नमी को
एक दूसरे की साँसों से गर्म करेंगे
कल्पनायें खुरदुरी जमीन पर
कहाँ दौड़ पाती हैं
तुम बुनती रही सपनों का शाल
और दिल्ली दरबार में रची जा रही थी
रुपये को, धर्म को, ईमान को
मार डालने की साजिशें
ऐसे खतरनाक समय में
प्रेम कहाँ जीवित रह पाता
जब कभी बहुत बैचेनियों से गुजरूँगा
तो ओढ़ लूंगा
तुम्हारा आसमानी शाल
और तुम भी
अब कभी बहुत घबड़ाओ
तो लपेट लेना
मेरा दिया हुआ वादों का मफ़लर----
"ज्योति खरे"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें