मंगलवार, फ़रवरी 13, 2018

परिणय के 32 वर्ष्

कॉलोनी में पास रहते, आते जाते कनखियाँ से देख लेता था, अपनी "अपना" को, कनखियाँ से उपजा यह प्रेम 13 फरवरी 1986 को अंकुरित हुआ, आज 32 वर्ष् का हरा भरा पेड़ आँगन में  हरिया रहा है.

तुम्हे जब पहली बार देखा
कर नहीं पाया अनदेखा
ऐसा क्या हुआ

भोर की उजली किरण सी
तुम लगीं थी उस समय
देह से था फूटता मानो मलय
क्या महूरत था की मेरी
जड़ भावना भी हिल गयी
शुष्क अंतर मन में कहीं कोई
नव कामना सी खिल गयी

तोड़कर संयम का पिंजरा
उड़ गया मन का सुआ

चाहतों के घर-घरोंदे
बैठ सागर के किनारे
कई दिवस कई माह तक
रोज शामों में अकेले
ऊगा दिये थे चाँद-तारे

मैने कितनी बार तुमको
अनछुये भी छुआ

तुम अभी इस
देहरी-दर-द्वार पर
आई नहीं हो
तुम रहो तुम ही समूची
मेरी परछाई नहीं हो

मैने कितनी बार मांगी
तुझसे ही तेरी दुआ-------
      
"ज्योति खरे"

कोई टिप्पणी नहीं: