साझा संकल्प लिया था अपन दोनों ने
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तुम्हारे मेंहदी रचे हाथों में
रख दी थी अपनी भट्ट पड़ी हथेली
महावर लगे तुम्हारे पांव
चलने लगे थे
मेरे खुरदुरे आँगन में
साझा संकल्प लिया था हम दोनों ने
कि,बढेंगे मंजिल की तरफ एक साथ
सबसे पहले
सुधारेंगे खपरैल छत
जिसमें गर्मी में धूप छनकर आएगी
सुबह की किरणें भी आएंगी
बरसात की कुछ बूंदे
बिना आहट के
सीधे उतर आएंगी
कच्ची मिट्टी के घर को
बचा पाने की विवशताओं में
फड़फड़ाते तैरते रहेंगे
पसीने की नदी में
अपन दोनों
पारदर्शी फासले को हटाकर
अपने सदियों के संकल्पित
प्यार के सपनों की जमीन पर
लेटकर बातें करेंगे
अपन दोनों
साझा संकल्प तो यही लिया था
कि,मार देंगे
संघर्ष के गाल पर तमाचा
जीत के जश्न में
हंसते हुये बजायेंगे तालियां
अपन दोनों---
"ज्योति खरे"
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