सोमवार, अक्टूबर 20, 2025

अंधेरों के ख़िलाफ़

अंधेरों के ख़िलाफ़
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प्रारम्भ में 
एक मिट्टी का दिया
जला होगा
जो अंधेरों से लड़ता हुआ 
उजाले को दूर दूर तक
फैलाता रहा होगा

फिर
संवेदनाओं के चंगुल में फंसकर
जनमत के बाजार में
नीलाम होने लगा
जूझता रहा आंधियों से
लेकिन
नहीं ख़त्म होने दी
अपनी टिमटिमाहट

उजाला
फूलों की पंखुड़ियों पर
लिख रहा है
अपने होने का सच

मिट्टी का दिया
आज भी उजाले को 
मुट्ठियों में भर भर कर 
घर घर पहुंचा रहा है
ताकि मनुष्य
लड़ सकें 
अंधेरों के ख़िलाफ़---

◆ज्योति खरे

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं

रविवार, अगस्त 03, 2025

दोस्त के लिए

दोस्त के लिए
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दोस्त
तुम्हारी भीतरी चिंता
तुम्हारे चेहरे पर उभर आयी है
तुम्हारी लाल आँखों से
साफ़ झलकता है
कि,तुम
उदासीन लोगों को
जगाने में जुटे हो 

ऐसे ही बढ़ते रहो
हम तुम्हारे साथ हैं

मसीह सूली पर चढ़ा दिए गये
गौतम ने घर त्याग दिया
महावीर अहिंसा की खोज में भटकते रहे
गांधी को गोली मार दी गयी

संवेदना की जमीन पर
कोई नया वृक्ष नहीं पनपा
क्योंकि
संवेदना की जमीन पर
नयी संस्कृति ने
बंदूक थाम रखी है

बंजर और दरकी जमीन पर
तुम
नए अंकुर
उपजाने में जुटे हो

ऐसे ही बढ़ते रहो
हम तुम्हारे साथ हैं

जो लोग
संगीतबद्ध जागरण में बैठकर
चिंता व्यक्त करते हैं
वही आराम से सोते हैं
इन्हें सोने दो

तुम्हारी चिंता
महानगरीय सभ्यता में हो रही गिरावट
और बाज़ार के आसमान
छूते भाव पर है

तुम अपनी छाती पर
वजनदार पत्थर बांधकर
चल रहे हो उमंग और उत्साह के साथ
मजदूरों का हक़ दिलाने 

ऐसे ही बढ़ते रहो
हम तुम्हारे साथ हैं

दोस्ती जिंदाबाद---

◆ज्योति खरे

बुधवार, जुलाई 16, 2025

नहीं रख पाते

नहीं रख पाते
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खिलखिलाती
बरसात
नहला देती है
पसीने से सनी धूप को
उतरकर दीवारों के सहारे
घुस जाती है
घर के भीतर
भर देती है
मौन संबंधों में संवाद 
फिर छत पर बैठकर
गाती है युगल गीत

बरसात
कर देती है
मुरझा रहे प्रेम को
तरबतर 

लेकिन हम
सहेजकर रख लेते हैं छतरी
नहीं रख पाते
सहेजकर
बरसात---

◆ज्योति खरे

गुरुवार, मार्च 20, 2025

आजकल वह घर नहीं आती

आजकल वह घर नहीं आती
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चटकती धूप में 
लाती है बटोरकर तिनके
रखती है घर के सुरक्षित कोने में 
फिर बनाती है अपना शिविर घर
जन्मती है चहचहाहट
गाती है अन्नपूर्णा के भजन
देखकर आईने में अपनी सूरत
मारती है चोंच

अब भूले भटके
आँगन में बैठकर
देखती है टुकुर मुकुर
खटके की आहट सुनकर
उड़ जाती है फुर्र से

वह समझ गयी है कि
आँगन आँगन
दाना पानी के बदले
जाल बिछे हैं
हर घर में
हथियार रखे हैं

अब उसने 
फुदक फुदक कर
आना छोड़ दिया है---

◆ज्योति खरे

शनिवार, मार्च 08, 2025

स्त्री पिस जाती है

स्त्री पिस जाती है 
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स्त्री पीसती है
सिल-बट्टे में
ससुर की
देशी जड़ी बूटियां
सास के लिए
सौंठ,कालीमिर्च,अजवाइन
पति के तीखे स्वाद के लिए
लहसुन,मिर्चा,अदरक

पीस लेती है
कभी-कभार
अपने लिए भी
टमाटर हरी-धनिया 

स्त्री नहीं समझ पाती कि,
वह खुद 
पिसी जा रही है
चटनी की तरह---

◆ज्योति खरे

शुक्रवार, फ़रवरी 14, 2025

गुलाब

कांटों के बीच
खिलने के बावजूद
सम्मोहित कर देने वाले 
इनके रंग
और देह से उड़ती हुई जादुई
सुगंध
को सूंघने
भौंरों का 
लग जाता है मज़मा
सूखी आंखों से
टपकने लगता है
महुए का रस

लेकिन जब
प्रेम में सनी उंगलियां
इन्हें तोड़कर
रखती हैं अपनी हथेलियों में 
तो इन हथेलियों को
नहीं मालूम होता है
कि,गुलाब की पैदाईश
कांटेदार कलम को
रोपकर होती है
हथेलियां यह भी नहीं जानती हैं कि
गुलाब के
सम्मोहन में फंसा प्रेम
एक दिन
सूख जाता है

प्रेम को  
गुलाब नहीं
गुलाब का 
बीज चाहिए----

◆ज्योति खरे