गुरुवार, मार्च 20, 2025

आजकल वह घर नहीं आती

आजकल वह घर नहीं आती
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चटकती धूप में 
लाती है बटोरकर तिनके
रखती है घर के सुरक्षित कोने में 
फिर बनाती है अपना शिविर घर
जन्मती है चहचहाहट
गाती है अन्नपूर्णा के भजन
देखकर आईने में अपनी सूरत
मारती है चोंच

अब भूले भटके
आँगन में बैठकर
देखती है टुकुर मुकुर
खटके की आहट सुनकर
उड़ जाती है फुर्र से

वह समझ गयी है कि
आँगन आँगन
दाना पानी के बदले
जाल बिछे हैं
हर घर में
हथियार रखे हैं

अब उसने 
फुदक फुदक कर
आना छोड़ दिया है---

◆ज्योति खरे

शनिवार, मार्च 08, 2025

स्त्री पिस जाती है

स्त्री पिस जाती है 
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स्त्री पीसती है
सिल-बट्टे में
ससुर की
देशी जड़ी बूटियां
सास के लिए
सौंठ,कालीमिर्च,अजवाइन
पति के तीखे स्वाद के लिए
लहसुन,मिर्चा,अदरक

पीस लेती है
कभी-कभार
अपने लिए भी
टमाटर हरी-धनिया 

स्त्री नहीं समझ पाती कि,
वह खुद 
पिसी जा रही है
चटनी की तरह---

◆ज्योति खरे

शुक्रवार, फ़रवरी 14, 2025

गुलाब

कांटों के बीच
खिलने के बावजूद
सम्मोहित कर देने वाले 
इनके रंग
और देह से उड़ती हुई जादुई
सुगंध
को सूंघने
भौंरों का 
लग जाता है मज़मा
सूखी आंखों से
टपकने लगता है
महुए का रस

लेकिन जब
प्रेम में सनी उंगलियां
इन्हें तोड़कर
रखती हैं अपनी हथेलियों में 
तो इन हथेलियों को
नहीं मालूम होता है
कि,गुलाब की पैदाईश
कांटेदार कलम को
रोपकर होती है
हथेलियां यह भी नहीं जानती हैं कि
गुलाब के
सम्मोहन में फंसा प्रेम
एक दिन
सूख जाता है

प्रेम को  
गुलाब नहीं
गुलाब का 
बीज चाहिए----

◆ज्योति खरे