उलाहना देती आवाज
गूंजती निकल जाती है
करीब से
कहती है सुनो
आम आदमी के सपने
उपज रहे हैं
जमीन से------
सिखाकर उड़ा दिये जाते हैं
पत्थरों के महल से
कबूतर
आम आदमी के
सपनों को भदरंग करने-----
सपने तो सपने होते हैं
आपस में लड़कर टूट जाते हैं
गिरने लगते हैं जमीन पर
फिर से ऊगने-----
वक्त के इस दौर में
सपनों को भी ऊगाना
कठिन हो गया है--------
"ज्योति खरे"
26/1/13
गूंजती निकल जाती है
करीब से
कहती है सुनो
आम आदमी के सपने
उपज रहे हैं
जमीन से------
सिखाकर उड़ा दिये जाते हैं
पत्थरों के महल से
कबूतर
आम आदमी के
सपनों को भदरंग करने-----
सपने तो सपने होते हैं
आपस में लड़कर टूट जाते हैं
गिरने लगते हैं जमीन पर
फिर से ऊगने-----
वक्त के इस दौर में
सपनों को भी ऊगाना
कठिन हो गया है--------
"ज्योति खरे"
26/1/13
8 टिप्पणियां:
वक्त के इस दौर में
सपनों को भी ऊगाना
कठिन हो गया है--------
वाकई....
बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...
सादर
अनु
बहुत सुन्दर खरेजी...वाकई ...!
वक्त के इस दौर में
सपनों को भी ऊगाना
कठिन हो गया है--------
सपनों की खेती करने के लिये आज कहाँ है वो हवा , पानी और ऊष्मा
प्रभावशाली रचना
वाह . बहुत उम्दा,सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति .
gahan prastuti
sunder prastuti
कविता का भाव सम्प्रेषण आकर्षक है.
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