हंसते हुये घर से निकले
गली गली से गुजरे
चौराहे पर
सब अलग अलग
गलियों से आकर मिले----
हवा
खून से सने पांव पांव
बिना आहट के
टकरायी
हंसी लाल रंग के फब्बारे की
शक्ल में उछलती
जमीन पर गिर पड़ी-----
खून से लथपथ चेहरों के ऊपर
चाहतों की आंखें बिछ गयी हैं
मुस्तैद है
चौराहों पर कैमरे की आंख
खींच रही है फोटो
पहले निगेटिव
फिर पाजिटिव
निगेटिव,पाजिटिव के बीच
फैले गूंगेपन में
चीख रहा है
शहर बेआवाज
फोटो गवाह है की शहर चीख रहा है
गूंगी फोटो अख़बार के मुखप्रष्ठ पर
चीख रही है
चीख रहा है शब्द शब्द
सारा खेल
खून बहाने का है----------
"ज्योति खरे"
जमीन पर लथपथ