समेटकर बैचेनियां
फागुन की
दहक गया टेसू
दो घूंट पीकर
महुये की
बहक गया टेसू------
सुर्ख सूरज को
चिढ़ाता खिलखिलाता
प्रेम की दीवानगी का
रूतबा बताता
चूमकर धरती का माथा
चमक गया टेसू------
गुटक कर भांग का गोला
झूमता मस्ती में
छिड़कता प्यार का उन्माद
बस्ती बस्ती में
लालिमा की ओढ़ चुनरी
चहक गया टेसू------
जीवन के बियावान में
पलता रहा
पत्तलों की शक्ल में
ढ़लता रहा
आंसुओं के फूल बनकर
टपक गया टेसू-------
"ज्योति खरे"
10 टिप्पणियां:
बस्ती बस्ती में
लालिमा की ओढ़ चुनरी
चहक गया टेसू------
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लाजवाब ....तन-मन पर काबिज हो गया टेसू ....
आंसुओं के फूल बनकर
टपक गया टेसू..........वाह ज्योति जी टेसू के माध्यम से मानवीय संवदेना को तरसती धरती का विरल दुख प्रकट किया है।
जीवन के बियावान में
पलता रहा
पत्तलों की शक्ल में
ढ़लता रहा
आंसुओं के फूल बनकर
टपक गया टेसू-------
....वाह! लाज़वाब प्रस्तुति..
bahut khubsurat
सुन्दर रचना !!
वाह लाजवाब रचना
टेसू पर अत्यंत सुन्दर कविता है। इसे पढ़ कर टेसू के फूल याद आ गए। बचपन में देखा था, होली के दिन इनको उबाल कर पीला रंग निकाला जाना। दहक, चटक, चहक बड़े सुन्दर और सार्थक प्रयोग हैं।
टेसू के इतने रूप ...वाह!
बहुत खूबसूरत रचना, बधाई.
सुंदर प्रस्तुति
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