सोमवार, अक्टूबर 26, 2015

शरद का चाँद बनकर ----

 
 
कुछ कागज में लिखी स्मृतियाँ
कुछ में सपने
कुछ में दर्द
कुछ में लिखा चाँद
 
चांद रोटियों की शक्ल में ढल गया
भूख और पेट की बहस में
गुम गयी
अंतहीन सपनो के झुरमुट में स्मृतियां
 
दर्द कराह कर
जंग लगे आटे के कनस्तर में समा गया
 
तुम्हारे खामोश शब्द
समुंदर की लहरों जैसा कांपते रहे
और मैं प्रेम को बसाने की जिद में
बनाता रहा मिट्टी का घरोंदा
 
और एक दिन तुम
अक्टूबर की शर्मीली ठंड में
अपने दुपट्टे में बांधकर जहरीला वातावरण
उतर आयी थी
शरद का चाँद बनकर
मेरी खपरीली छत पर


                                # ज्योति खरे 

चित्र--- गूगल से साभार 


मंगलवार, अक्टूबर 13, 2015

मिट्टी से सनी उंगलियां --------


पूरब से ऊगता
तमतमाता आग उगलता सूरज
नंगे पाँव चलता है
मटके का पानी पी पी कर
थके मुसाफिर की तरह---

आसमान में टंके सलमे सितारों वाली
नीली चुनरी ओढ़कर रात
केंचुली से लिपटे सांप की तरह सरकती है---

ईंट के चूल्हे में सिंक रही रोटियों की कराह
भूख को समझाती हैं
गोद में लेटकर दूध पीता बच्चा
फटे आँचल के छेद से झांककर देख रहा है
कब बाप की मिट्टी से सनी उंगलियां
उसकी किलकारियों को आसमान की तरफ उछालेंगी---


मजदूरों,कलाकारों की भूख से सजे शहर में
रोटियों से ज्यादा जरुरी है
चंदे के रुपयों से
रंगबिरंगी बिजलियों का चमकना--


मिट्टी से सनी उंगलियां
अभी भी व्यस्त हैं
सुंदर सृजन को आकार देने में ------
                        
                               "ज्योति खरे"

चित्र - ज्योति खरे


गुरुवार, अक्टूबर 08, 2015

चुप्पियों की उम्र क्या है -----

अपराधियों की दादागिरी
साजिशों का दरबार
वक़्त थमता तो बताते
जुर्म की रफ़्तार ----

गुनाह का नमूना
ढूंढ कर हम क्या करेंगें
सत्य की गर्दन कटी है
झूठ के हाँथों तलवार----

न्याय के चौखट तुम्हारे
फ़रियाद सहमी सी खड़ी है 
सिसकियाँ सच बोलती हैं
कोतवाली सब बेकार ----

आ गये थे यह सोचकर
पेट भर भोजन करेंगे
छेद वाली पत्तलों का
दुष्ट जैसा व्यवहार ----

मरने लगी इंसानियत
कीटनाशक गोलियां से
संवेदना की धार धीमी
सूख रहा धुआंधार -----

चुप्पियों की उम्र क्या है
एक दिन विद्रोह होगा
आग धीमी जल रही
बस भड़कने का इंतजार ----
                  
"ज्योति खरे"


बुधवार, सितंबर 23, 2015

इरादों की खेती करेंगे ----


अपने इरादों को
तुमने ही दो भागों में बांटा था
तुम अपने हिस्से का
दुपट्टे में बांधकर
ले गयी थी
यह कहकर
मैं अपने इरादे पर कायम रहूंगी
पूरा करुँगी ---


मैं अपने इरादों को
मंजिल तक पहुंचाने
परिस्थितियों से जूझता रहा
अपने इरादों पर
आज भी कायम हूँ
शायद तुम ही
अपने इरादों से बधें दुपट्टे को
पुराने जंग लगे संदूक में रख कर भूल गयी ---

अपने इरादों का दुपट्टा ओढ़कर
बाहर निकलो --
मैं साइकिल लिए खड़ा हूँ
सड़क पर
तुम्हारे पीछे बैठते ही
मेरे पाँव
इरादों के पैडिल को घुमाने लगेंगे---

दूर बहुत दूर
किसी बंजर जमीन पर ठहर कर
अपन दोनों
इरादों की
खेती करेंगे ----

                      "ज्योति खरे"

चित्र-- गूगल से साभार 

सोमवार, सितंबर 07, 2015

बिटिया के आँचल में -----

अपने आँचल में
ममता की झील बांधे हो
यह झील विरासत में मिली हैं तुम्हें
फिर झील को क्यों बांटना चाहती हो
अगर बांटना है तो
न्याय की जमीन पर खड़े होकर बांटो ---
 
बेटे को झील का तीन हिस्सा पानी
बेटी को एक हिस्सा
सारे उपवास बेटे के उज्जवल भविष्य के लिए
बिटिया के लिए कुछ भी नहीं
 
हरछठ में उपासी हो
बिना हल चले खेत के
पसई के चांवल खाओगी
महुआ की चाय पियोगी
बांस की टोकनी पूजोगी
जिसे ममता की झील का तीन हिस्सा पानी दे रही हो
उस वंश ने एक बार भी नहीं पूछा
जिसे एक हिस्सा दे रही हो
वह तीन हिस्से और मिलाकर लौटा रही है ---
 
दिनभर से पूछ रही है
मम्मी
महुआ की चाय पी
पसई के चांवल खाये
पूजा हुई
ब्लड प्रेशर की दवाई जरूर खाना
भैया का फोन आया ----
 
मेरी बात पर रोना नहीं सुनीता
ममता की झील सूख जायेगी
झील के पानी को बचाओ
बिटिया को अधिक पानी दो
उसे पीढ़ी दर पीढ़ी बांटना है पानी ----
 
बिटिया के आँचल में
ममता का पानी
लबालब भरा रहना चाहिए -------

"ज्योति खरे"





गुरुवार, अगस्त 20, 2015

विश्व फोटोग्राफी दिवस पर ----

वर्षों से
प्यार के लिए
उपासे हैं
नर्मदा के घाट पर
प्यासे हैं -----

अपनी आंखों में उतार लाया हूँ नर्मदा को --19.8.2015
ग्वारीघाट --- जबलपुर

मंगलवार, जून 30, 2015

स्त्रियां जानती हैं

 
                      
 
                      स्त्री को
                      बचा पाने की
                      जुगत में जुटे
                      पुरुषों की बहस
                      स्त्री की देह से प्रारंभ होकर
                      स्त्री की देह में ही
                      हो जाती है समाप्त ---
 
                      स्त्रियां
                      पुरषों को बचा पाने की जुगत में भी
                      रखती हैं घर को व्यवस्थित
                      सजती संवरती भी हैं ---
 
                      स्त्रियां जानती हैं
                      पुरुषों के ह्रदय
                      स्त्रियों की धड़कनों से
                      धड़कते हैं ---
 
                      पुरुषों की आँखें
                      नहीं देख पाती
                      स्त्री की देह में एक स्त्री
                      स्त्रियों की आँखें 
                      देखती हैं
                      समूची श्रृष्टि -----
                                    
                                     "ज्योति खरे"


चित्र
गूगल से साभार

गुरुवार, जून 18, 2015

होना तो कुछ चाहिए


कविता संग्रह का विमोचन

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वरिष्ठ कवि ज्योति खरे के पहले कविता संग्रह "होना तो कुछ चाहिए" का विमोचन समारोह
24 मई को हिंदी भवन,दिल्ली में आयोजित किया गया.समारोह की अध्यक्षता
भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक और सुप्रसिद्ध कवि श्री लीलाधर मंडलोई जी ने की,
समारोह के मुख्य अतिथि वरिष्ठ कवि और समालोचक श्री विष्णु नागर जी थे,प्रमुख वक्ता
प्रसिद्ध साहित्यकार श्री उपेन्द्र कुमार जी एवं राजीव श्रीवास्तव की उपस्थिति रही.
समारोह का संचालन प्रसिद्ध कवि समीक्षक डॉ ओम निश्चल जी ने अपने अनूठे अंदाज में किया
विष्णु नागर जी ने पुस्तक का विमोचन करते हुऐ कहा कि आज के दौर की समकालीन कविताओं
का यह संग्रह वर्तमान जीवन की विडंबनाओं को उजागर करता है,साथ ही इन्होंने
कविता के रूप और गुणों पर भी प्रकाश डाला और कविता के निर्माण में कौन सा तत्व सर्वाधित उपयोगी होता है इस विषय पर भी सवाल उठाया, ज्योति खरे को संग्रह पर बधाई और शुभकामनायें दी.
मुख्य वक्ता आलोचक उपेन्द्र कुमार ने कहा कि ज्योति खरे की कवितायें सहजता से बुनी
हुई हैं और मन को प्रभावित करती हैं, इनकी कविताओं में शब्दों की कठिनता नहीं बल्कि
बोलचाल की भाषा का सुंदर और व्यवहारिक प्रयोग है, जो कविताओं को पठनीय बनाता है.
 
 
 साहित्यकार और कला समीक्षक डॉ राजीव श्रीवास्तव ने अपने उद्बोधन में कहा कि
संग्रह की सभी कवितायें नये दौर की बेहतरीन कवितायें हैं,इन्होंने ज्योति खरे के
सातवें और आठवें दशक की, सारिका, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, कादम्बनी,
नवनीत जैसी पत्रिकाओं में प्रकाशित इनकी रचनाओं से लेकर वर्तमान तक की सृजन
यात्रा पर विस्तार से प्रकाश डाला,
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे "नया ज्ञानोदय" के संपादक और भारतीय ज्ञानपीठ के
निदेशक श्री लीलाधर मंडलोई जी ने कहा कि, एक कस्बाई नुमा शहर में रहकर
कविता लिखना और उसे इतने सालों से बचाकर रखना एक चुनौती पूर्ण काम है,
यही कारण है की इनकी कविताओं में मन की पीड़ा तो है, साथ ही साथ समाज और
जीवन की विडम्बनाओं का भी प्रभाव है,वर्तमान समय की नब्ज को पहचानती इनकी
कविताओं में सहजता है जो मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं.इन्होंने कहा कि संग्रह की
सभी कवितायें समकालीन दौर की बेहतरीन कवितायें हैं.

इस विशेष मौके पर ज्योति खरे ने संग्रह की कुछ कवितायें भी अपने अंदाज में पढ़ी
वरिष्ठ समालोचक डॉ ओम निश्चल ने समारोह का बहुत सृजनात्मक संचालन किया
आभार ब्लू बक पब्लिकेशन्स के प्रबंधक अजय आनन्द ने किया
समारोह में दिल्ली और बाहर से आये साहित्यकारों की उपस्थिति ने समारोह को
गरिमा प्रदान की

आग्रह है पुस्तक यहां से प्राप्त करें, और अपनी सार्थक प्रतिक्रिया दें
सादर आभार सहित -----
http://www.flipkart.com/hona-kuch-chahiye/p/9788193062616?pid=9788193062616

ज्योति खरे

शुक्रवार, मई 01, 2015

कामरेड आगे बढ़ो --------



कामरेड
तुम्हारी भीतरी चिंता
तुम्हारे चेहरे पर उभर आयी है
तुम्हारी लाल आँखों से
साफ़ झलकता है
कि,तुम
उदासीन लोगों को
जगाने में जुटे हो ----

 

कामरेड आगे बढ़ो
हम तुम्हारे साथ हैं

मसीह सूली पर चढ़ा दिये गये
गौतम ने घर त्याग दिया
महावीर अहिंसा की खोज में भटकते रहे
गांधी को गोली मार दी गयी

संवेदना की जमीन पर
कोई नया वृक्ष नहीं पनपा
क्योंकि
संवेदना की जमीन पर
नयी संस्कृति
बंदूक पकड़े खड़ी है

बंजर और दरकी जमीन पर
तुम
नये अंकुर
उपजाने में जुटे हो----

कामरेड आगे बढ़ो
हम तुम्हारे साथ हैं

जो लोग
संगीतबद्ध जागरण में बैठकर
चिंता व्यक्त करते हैं
वही आराम से सोते हैं
इन्हें सोने दो

कामरेड तुम्हारी चिंता
महानगरीय सभ्यता
और बाजारवाद पर नहीं
मजदूरों की रोटियों की हैं
उनके जीवन स्तर की है

तुम अपनी छाती पर
वजनदार पत्थर बांधकर
चल रहे हो उमंग और उत्साह के साथ
मजदूरों का हक़ दिलाने ----

कामरेड आगे बढ़ो
हम तुम्हारे साथ हैं
तुम्हें लाल सलाम
लाल सलाम
इंकलाब जिंदाबाद
जिंदाबाद

"ज्योति खरे"

गुरुवार, फ़रवरी 26, 2015

आज भी रिस रहा है -----

 जब कभी
तराशा होगा
पहाड़ को
दर्दनाक चीख
आसमान तक तो
पहुंची होगी---
आसमान तो आसमान है
वह तो केवल
अपनी सुनाता है
दूसरों की कहां सुनता है--- 
कांपती सिसकती
पहाड़ की सासें
ना जाने कितने बरस
अपने बचे रहने के लिए
गिड़गिड़ाती रहीं---  
कारीगर  
पहाड़ की कराह
को अनसुना कर
उसे नया शिल्प देने
इतिहास रचने
करते रहे
प्रहार पर प्रहार--- अब जब कभी
कोई इनके करीब आता है
छू कर महसूसता है
इनका दर्द
पारा बन चुकी
पहाड़ की आंखों की बूंदें
टपक कर छन-छना जाती हैं---
बिखेर देती हैं
अंधेरी गुफाओं में उजाला
कि देखो
आज भी रिस रहा है
इतिहास की स्मृतियों से
कराहता खून-----
"ज्योति खरे"

 एलोरा की गुफाएं --- फोटो - ज्योति खरे











सोमवार, जनवरी 26, 2015

बसंत तुम लौट आये हो ------

अच्छा हुआ
तुम इस सर्दीले वातावरण में
लौट आये हो--
 
सुधर गई
बर्फीले प्रेम की तबियत    
जमने लगीं
मौसम की नंगी देह पर
कुनकुनाहट
 
लम्बे अंतराल के बाद
सांकल के भीतर
खुसुर-फुसुर होने लगी
सरक गयी सांसों की सनसनाहट से
रजाई
चबा चबा कर गुड़ की लैय्या 
धूप दिनभर इतराई

वाह!! बसंत
कितने अच्छे हो तुम
जब भी आते हो
प्रेम में सुगंध भर जाते हो---
                           
                      "ज्योति खरे"
 चित्र- गूगल से साभार








बुधवार, जनवरी 14, 2015

अम्मा का निजि प्रेम -------

आटे के ठोस
तिली के मुलायम लड्डू
मीठी नीम के तड़के से
लाल मिर्च शक्कर भुरका नमकीन
हींग,मैथी,राई से बघरा मठा
और नये चांवल की खिचड़ी
 
खाने तब ही मिलती थी
जब सभी
तिल चुपड़ कर नहाऐं
और अम्मा के भगवान के पास
एक एक मुठ्ठी कच्ची खिचड़ी चढ़ाऐं
 
पापा ने कहा
मुझे नियमों से बरी रखो
बच्चों के साथ मुझे ना घसीटो 
सीधे पल्ले को सिर पर रखते हुए
अम्मा ने कहा
नियम सबके लिए होते हैं

 
पापा ने पुरुष होने का परिचय दिया
अब मुझसे प्रेम नहीं करती तुम
अम्मा ने तपाक कहा
बिलकुल नहीं करती तुमसे प्रेम
 
पापा की हथेली से
फिसलकर गिर गया सूरज 
माथे की सिकुड़ी लकीरों को फैलाकर
पूंछा क्यों
जमीन में पड़े पापा के सूरज को उठाकर
सिंदूर वाली बिंदी में
लपेटते हुए बोलीं
तुम्हारा और मेरा प्रेम
समाज और घर की चौखट से बंधा है
जो कभी मेरा नहीं रहा
 
बंधा प्रेम तो
कभी भी टूट सकता है
निजि प्रेम कभी नहीं टूटता
मेरा निजि प्रेम मेरे बच्चे हैं

 
पापा बंधें प्रेम को तोड़कर
वैकुंठधाम चले गये
अम्मा आज भी
अपने निजि प्रेम को जिन्दा रखे
अपनी जमीन पर खड़ी हैं -----

                                                  "ज्योति खरे "


चित्र -- गूगल से साभार



   

शनिवार, जनवरी 03, 2015

इस बरस और कई कई बरस ----

 
कई वर्षों से इकठ्ठे
टुकनियां भर निवेदनों को
एक ही झटके में झटककर
मन के हवालात में
अपराधियों की कतार में
खड़ा कर दिया
 
मैंने तो कभी नहीं किया निवेदन
ना ही दिए कोई संकेत
ना ही देखा समूची पलकों को खोलकर
कनखियों से देखना
अपराध है क्या ?
 
तुम भी तो खरोंच देती हो
कनखियों से देखते समय
मेरी मन की देह को
और भींग जाती हो
भीतर तक
ऊग जाती हैं
तुम्हारे चेहरे पर बूंदें
पोंछकर बूंदों को
अपराधी ठहराना गुनाह है
 
स्वीकार कर लो
नए बरस की नयी कामनायें
ताकि प्रेम के खारे समंदर में
आ जाये मिठास
इस बरस और कई कई बरस ----
 
                                                              "ज्योति खरे "

चित्र- गूगल से साभार