बारूद में लिपटी
जीवन की किताब को
पढ़ते समय
गुजरना पड़ता है
पढ़ने की जद्दोजहद से
दहशतजदा हवाओं का
खिड़कियों से सर्राते चले आना
छत के ऊपर किसी
आतातायी के भागते समय
पैरों की आवाजें आना
खामोश दीवारों की परतों का
अचानक उधड़ कर गिर जाना
बच्चों की नींद की तरह
कई-कई सपनों को
चौंककर देखना
ऐसे समय में भी
पढ़ना तो जरूरी है
जीवन की कसैली नदी में
तैरते समय
डूबने की फड़फडाहट में
पकड़ाई आ जाता है
आंसुओं की बूंदों से भरा आंचल
अम्मा ले आती हैं हमेशा
जीवन के डूबते क्षणों म़े
कसैली नदी से निकालकर
पकड़ा देती है
बारुद से लिपटी किताब
अगर नहीं पढ़ोगे किताब
तो दुनियां में लगी आग को
कैसे बुझा पाओगे---
"ज्योति खरे"
8 टिप्पणियां:
बहुतखूब सर जी।
हमेशा की तरह लाजवाब।
विचारोत्तेजक सराहनीय सृजन सर।
बहुत अच्छा लिखा है आपने👌
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (24-07-2019) को "नदारत है बारिश" (चर्चा अंक- 3406) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर कविता। मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
iwillrocknow.com
आदरणीय बेहतरीन प्रस्तुति अ*ले आती है हमेशा जीवन के डूबते क्षणों में कसैली नदी से निकलकर पकड़ा देती हैं बारूद में लिपटी किताब.... अगर नहीं पड़ोगे किताब तो दुनियां में लगी आग को कैसे बुझा पाओगे
बारूद में लिपटी जीवन की किताब में एक द्वंद्वात्मकता तो है लेकिन बात कुछ स्पष्ट नहीं हो रही है इसमें विरोधाभास अधिक दिखाई दे रहा है
बाकी कविता अच्छी है
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन जन्मदिवस - मैथिलीशरण गुप्त और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
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