तड़फते,कराहते
वातावरण में
धड़कनों की
महीन आवाजें
पढ़ती हैं
उदास संवेदनाओं
के चेहरों पर
अनगिनत संभावनाऐं
घबड़ाहटें
चुपचाप
देखती हैं
प्लास्टिक की बोंतलों से
टपककती ग्लूकोज की बूंदें
इंजेक्शनों की चुभती सुई के साथ
सिकुड़ते चेहरे
सफेद बिस्तर पर लेटी देह
देखती है
मिलने जुलने वालों के चेहरों को
अपनी पनीली आंखों से
कि,कौन कितना अपना है
अपनों में
अपनों का अहसास
अस्पताल में ही होता है -------
"ज्योति खरे"
8 टिप्पणियां:
आह , अस्पताल के अनुभव का ऐसा चित्रण कभी नहीं पढा . मर्मस्पर्शी .
बहुत सारे सच हम स्वीकार नहीं करना चाहते हैं उनमें से एक यह भी है। लाजवाब।
भाई जी आपके ब्लॉग में प्रतिक्रिया का आप्शन नहीं आ रहा है
आभार आपका
हाँ ,ऐसे अवसरों पर ही अपनों की पहचान होती है.
सकारात्मकता बनी रहे सर..जल्दी स्वस्थ हो जायें।
बहुत बढ़िया
#हकीकत
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