हरे-भरे सपने
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आम आदमी के कान में
फुसफुसाती आवाजें
निकल जाती हैं
यह कहते हुए
कि,
टुकड़े टुकड़े जमीन पर
सपनें मत उगाओ
जानते हो
कबूतरों को
सिखाकर उड़ाया जाता है
लाल पत्थरों के महल से
जाओ
आम आदमी के
सुखद एहसासों को
कुतर डालो
उनकी खपरीली छतों पर बैठकर
टट्टी करो
कुतर डालो सपनों को
सपने तो सपने होते हैं
आपस में लड़ते समय
जमीन पर गिरकर
टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं
काले समय के इस दौर में
सपनों को ऊगने
भुरभुरी जमीन चाहिए
तभी तो सपनें
हरे-भरे लहरायेंगे---
"ज्योति खरे"
9 टिप्पणियां:
वाह लाजवाब
काले समय के इस दौर में
सपनों को ऊगने
भुरभुरी जमीन चाहिए
तभी तो सपनें
हरे-भरे लहरायेंगे
बहुत खूब सर सादर नमन आपको
एक भिन्न प्रकार की रचना। बढ़िया 👌👌
आभार आपका
आभार आपका
आभार आपका
बिलकुल सही, सादर
आभार आपका
ज़बरदस्त।
ये कबूतर आजकल योजनाएं कहलाती हैं।
जो महसूस तो बोझ रहित होती है लेकिन समाज पर भारी पड़ती है।
मेरी कविता भी आपकी नज़र
कृपया जरूर आईयेगा - लोकतंत्र
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