शनिवार, अक्तूबर 08, 2022

शरद का चाँद

शरद का चाँद
***********
ख़ामोशी तोड़ो
सजधज के बाहर निकलो
उसी नुक्कड़ पर मिलो
जहाँ कभी बोऐ थे हमने
चांदनी रात में
आँखों से रिश्ते 

और हाँ !
बांधकर जरूर लाना
अपने दुपट्टे में
वही पुराने दिन
दोपहर की महुआ वाली छांव
रातों के कुंवारे रतजगे
आंखों में तैरते सपने
जिन्हें पकड़ने
डूबते उतराते थे अपन दोनों 

मैं भी बाँध लाऊंगा
तुम्हारे दिये हुये रुमाल में
एक दूसरे को दिये हुए वचन
कोचिंग की कच्ची कॉपी का
वह पन्ना
जिसमें
पहली बार लगायी
लिपिस्टिक लगे तुम्हारे होंठों के निशान
आज भी
ज्यों के त्यों बने हैं
 
क्योंकि अब भी तुम
मेरे लिए
शरद का चाँद हो------

◆ज्योति खरे

गुरुवार, सितंबर 22, 2022

तुम्हें उजालों की कसम

तुम्हें उजालों की कसम
******************
मैंने तुम्हें 
चेतन्य आंखों से देखा है
लपटों से घिरा
ज्वालाओं से प्रज्जलित
मेरा 
आखिरी सम्बल भी विचलित
आंखों में आंसू नहीं
लेकिन
मन अग्निमय हो रहा
जाने कहाँ मेरा अतीत 
धुंध में खो रहा
तुझे मानसपटल से कैसे
उतार फेंकूं
ह्रदय में
स्मृति स्नेह अंकित हो रहा

तू इसे नहीं ले जा सकता
कष्टकित,भयानक
विचार श्रृंखलालाएं आती

हाथ उठाकर आंखें जो छुई
मैं खुद ही चोंक पड़ी
प्रबल ज्वाला की गोद में
जलधारा बह चली
पत्थर का ह्रदय है
फिर भी
आंसू ढ़लकने लगे तो
यह कोई रहस्य नहीं
प्रेम है

मेरे घायल मस्तिष्क की पीड़ा को
तेरी स्मृतियों का छूना
तेरे कल्याणकारी स्पर्श में
समा जाती है
हर पीड़ा

कुछ सोचो
भविष्य की गोद
इतनी अंधकारमय है
कि,ज्योतिषियों की आंखें भी
पग पग धोखा खाती हैं
अब न जाओ दूर 
मेरी आत्मा तुम्हें पुकारती है

तुम्हें 
उजालों की कसम----

◆ज्योति खरे

गुरुवार, सितंबर 08, 2022

अब मैं उड़ सकूंगा

अब मैं उड़ सकूंगा
***************
दिन बीता,शाम बीती
रात देह पर डालकर
अंधकार की चादर
चली गयी

रात को क्या पता
आंखों में नींद
पलकों के भीतर लेट गयी
या पलकों को छूकर चली गयी

तिथि बदली 
सिंदूरी सुबह ने
दस्तक दी
और एक जुमला जड़कर 
चली गयी
कि,लग जाओ काम पर

दिनभर कई बार
फैलाता हूं अपनी हथेलियों को
बेहतर गुजरे दिन की दुआ
मांगने नहीं
धूल से सने पसीने को
पोंछने के लिए
और उसके लिए 
जिसके बिना
अधूरा है 
जीवन का चक्र

चटकीली धूप को चीरता राहत भरी ठंडी हवा के साथ
किसी फड़फड़ाते परिंदे
का पंख 
हथेली की तरफ आया

यह टूटा पंख 
आया है प्रेम को
खुले आसमान में उड़ाने की
कला सिखाने

अब मैं उड़ सकूंगा
पंख में लिपटे प्रेम को 
आशाओं की पीठ पर बांधकर
जीवन जीने के चक्र को
पूरा करने---

◆ज्योति खरे

गुरुवार, अगस्त 25, 2022

राह देखते रहे

राह देखते रहे
***********
राह देखते रहे उम्र भर 
क्षण-क्षण घडियां 
घड़ी-घड़ी दिन 
दिन-दिन माह बरस बीते 
आंखों के सागर रीते--

चढ़ आईं गंगा की लहरें 
मुरझाया रमुआ का चेहरा 
होंठों से अब 
गयी हंसी सब  
प्राण सुआ है सहमा-ठहरा 

सुबह,दुपहरी,शामें 
गिनगिन 
फटा हुआ यूं अम्बर सीते--

सुख के आने की पदचापें 
सुनते-सुनते सुबह हो गयी 
मुई अबोध बालिका जैसी 
रोते-रोते आंख सो गयी 

अपने दुश्मन 
हुए आप ही 
अपनों ने ही किये फजीते--

धोखेबाज खुश्बुओं के वृत
केंद्र बदबुओं से शासित है 
नाटक-त्राटक,चढ़ा मुखौटा 
रीति-नीति हर आयातित है 

भागें कहां, 
खडे सिर दुर्दिन 
पड़ा फूंस है, लगे पलीते--

◆ज्योति खरे

गुरुवार, अगस्त 11, 2022

दोस्त के लिए

दोस्त के लिए
***********
तार चाहे पीतल के हों
या हों एल्युमिनियम के 
या हों फोन के 
दोस्त!
दोस्ती के तार 
महीन धागों से बंधे होते हैं

मुझे 
प्रेमिका न समझकर
दोस्त की तरह  
याद कर लिया करो

जिस दिन ऐसा सोचोगे
कसम से 
दो समानांतर पटरियों में 
दौड़ती ट्रेन में बैठकर हम
जमीन में उपजे 
प्रेम के हरे भरे पेड़ों को
अपने साथ दौड़ते देखेंगे

कभी आओ 
रेलवे प्लेटफार्म पर
सीमेंट की बेंच पर
बैठी मिलूंगी
पहले खूब देर तक झगड़ा करेंगे

फिर छूकर देखना मुझे
रोम-रोम 
तुम्हारी प्रतीक्षा में 
आज भी स्टेशन में
बैठा है --

◆ज्योति खरे

गुरुवार, अगस्त 04, 2022

प्रेम को नमी से बचाने

प्रेम को नमी से बचाने
****************
धुओं के छल्लों को छोड़ता
मुट्ठी में आकाश पकड़े
छाती में 
जीने का अंदाज बांधें
चलता रहा 
अनजान रास्तों पर 

रास्ते में
प्रेम के कराहने की 
आवाज़ सुनी 
रुका 
दरवाजा खटखटाया 
प्रेम का गीत बाँचा
जब तक बाँचा 
जब तक 
प्रेम उठकर खड़ा नहीं हुआ 

गले लगाया 
थपथपाया
और उसे संग लेकर चल पड़ा
शहर की संकरी गलियों में

दोनों की देह में जमें
प्रेम को
बरसती गरजती बरसात
बहा कर 
सड़क पर न ले आये
तो खोल ली छतरी
खींचकर पकड़ ली 
उसकी बाहं
और निकल पड़े 
प्रेम को नमी से बचाने
ताकि संबंधों में 
नहीं लगे फफूंद---  

◆ज्योति खरे

बुधवार, जुलाई 13, 2022

मेरे हिस्से का बचा हुआ प्रेम

मेरे हिस्से का बचा हुआ प्रेम
**********************
फूलों को देखकर कभी नहीं लगता
कि,एक दिन मुरझा कर 
बिखर जाएंगे ज़मीन पर
तितलियों को उड़ते देखकर भी कभी नहीं लगा
कि,इनकी उम्र बहुत छोटी होती है

समूचा तो कोई नहीं रहता

देह भी राख में बदलने से पहले 
अपनी आत्मा को 
हवा में उड़ा देती है
कि,जाओ
आसमान में विचरण करो

लेकिन मैं
स्मृतियों के निराले संसार में 
जिंदा रहूंगा
खोलूंगा
जंग लगी चाबी से
किवाड़ पर लटका ताला
ताला जैसे ही खुलेगा

धूल से सनी किताबों से
फड़फड़ाकर उड़ने लगेंगी
मेरी अनुभूतियां
सरसराने लगेंगी
अभिव्यक्तियां
जो अधलिखे पन्नों में
मैंने कभी दर्ज की थी
पिघलने लगेगी 
कलम की नोंक पर जमी स्याही

पीली पड़ चुकी 
उपहार में मिली 
कोरी डायरी में
अब मैं नहीं 
लोग लिखेंगे
मेरे हिस्से का 
बचा हुआ प्रेम---

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जुलाई 07, 2022

प्रेम देखता है

प्रेम देखता है
**********
गांव के बूढ़े बरगद के नीचे बैठकर
कुछ बूढ़े कहते हैं 
प्रेम अंधा होता है

कुछ शहरी बूढ़े
बगीचे में बिछी बेंचों पर बैठकर कहते हैं
प्रेम
पागल होता है  

गांव की बूढ़ी औरतें
खेरमाई के चबूतरे में
बैठकर कहती हैं
प्रेम करने वाले धोखेबाज होते हैं 

शहर की 
भजन मंडली में शामिल महिलाएं कहती हैं 
प्रेम 
भीख मंगवा देता है

हे प्रेम
तू अंधा है
पागल है
धोखेबाज है
और भीख भी मांगता है
फिर भी 
आपस में करते हैं लोग प्रेम 

माना कि तू अंधा है
लेकिन प्रेम के 
उबड़-खाबड़ रास्तों से गुजरता हुआ
दिलों में बैठ जाता है

माना कि तू पागल है
लेकिन
मन की भाषा तो समझता है
धोखेबाज है
लेकिन अपने साथी से
दिल की बात तो करता है

माना कि तू भीख मांगता है
तो मांग 
अपनों से अपने लिए
प्रेम को स्थापित करने के लिए
नए सृजन के बीज अंकुरित करने के लिए
नया संसार बसाने के लिए

प्रेम में जकड़े दो दिल
दो मन
दो जान
जब बैठते हैं किसी एकांत में तो
दोनों की आंखे देखती हैं
एक दूसरे को अपलक
कहते हैं
प्रेम अंधा नहीं होता
हम देखते हैं 
एक दूसरे के भीतर
अपनी अपनी 
उपस्थिति के निशान---

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जून 23, 2022

फुरसतिया बादल

फुरसतिया बादल
*************
बजा बजा कर
ढोल नगाड़े
फुरसतिया बादल आते
बिजली के संग
रास नचाते
बूंद बूंद चुंचुआते--

कंक्रीट के शहर में
ऋतुयें रहन धरी
इठलाती नदियों में
रोवा-रेंट मची

तर्कहीन मौसम अब
तुतलाते हकलाते--

चुल्लू जैसे बांधों में
मछली डूब रही
प्यासे जंगल में पानी
चिड़िया ढूंढ रही

प्यासी ताल-तलैयों को
रात-रात भरमाते--

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जून 09, 2022

किससे पूछें किसका गांव

किससे पूछें किसका गांव
आधी धूप और आधी छांव

जंगलों में ढूंढ रहे
प्रणय का फासला
अंदर ही अंदर
घाव रहे तिलमिला
सड़कों की दूरियां 
पास नहीं आती हैं
अपनी तो आंतें
घास नहीं खाती हैं

जीने की ललक ढूंढ रही ठांव--

अपहरित हो गयी
खुद ही की चाह
कौन जाने कितने 
गिनना है माह
सबके सामने है
सबकी परिस्थितियां
रह रह बदल रहा
मौसम स्थितियां

दिखते नहीं हैं अपने पांव--

मांग रहे सन्नाटा
करने अनुसंधान
चुप्पी फिर हो गयी
कौन बने प्रधान
उड़ रहा लाश का
बसाता धुआं
सूख गया एक
चिल्लाता कुआं

मौन झील में डूब गयी नांव
किससे पूछे किसका गांव--

◆ज्योति खरे

रविवार, जून 05, 2022

विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते हुए

निकले थे 
गमझे में
कुछ जरुरी सामान बांध कर   
कि किसी पुराने पेड़ के नीचे 
बैठेंगे
और बीनकर लाये हुए कंडों को सुलगाकर
पेड़ की छांव में
गक्क्ड़ भरता बनाकर
भरपेट खायेंगे 

हरे और बूढ़े
पेड़ की तलाश में
विकलांग पेड़ों के पास से गुजरते रहे

सोचा हुआ कहां
पूरा हो पाता है 

सच तो यह है कि 
हमने 
घर के भीतर से 
निकलने और लौटने का रास्ता 
अपनों को ही काट कर बनाया है----

◆ज्योति खरे

गुरुवार, जून 02, 2022

तपती गर्मी जेठ मास में

अनजाने ही मिले अचानक 
एक दोपहरी जेठ मास में 
खड़े रहे हम बरगद नीचे 
तपती गरमी जेठ मास में-

प्यास प्यार की लगी हुयी
होंठ मांगते पीना 
सरकी चुनरी ने पोंछा 
बहता हुआ पसीना 

रूप सांवला हवा छू रही 
बेला महकी जेठ मास में--

बोली अनबोली आंखें 
पता मांगती घर का 
लिखा धूप में उंगली से 
ह्रदय देर तक धड़का 

कोलतार की सड़कों पर   
राहें पिघली जेठ मास में---   

स्मृतियों के उजले वादे 
सुबह-सुबह ही आते 
भरे जलाशय शाम तलक 
मन के सूखे जाते 

आशाओं के बाग खिले जब  
यादें टपकी जेठ मास में-----

"ज्योति खरे"

बुधवार, मई 25, 2022

बूंद

💧बूंद 💦
 ********
उबलता हुआ जीवन
आसमान की छत पर
भाप बनकर चिपक जाता है जब
तब काला सफ़ेद बादल
घसीट कर भर लेता है
अपने आगोश में  
फिर भटक भटक कर 
टपकाने लगता है
पानीदार बूंदें 

बादल देखता है
धरती की सतह पर
भूख से किलबिलाते बच्चों के
चेहरों पर बनी
आशाओं की लकीरें 
पढ़ता है प्रेम की छाती पर लिखे
विश्वास,अविश्वास के रंगों से गुदे
अनगिनत पत्र
दरकते संबंधों में बन रही
लोक कलाकारी
और दहशत में पनप रहे संस्कार

इस भारी दबाब में
टपकती हैं
जीवनदार बूंदे
क्यों कि, बूंद
सहनशील होती है
खामोश रहकर  
कर देती है
धूल से भरी
अहसास की जमीन को साफ
बूंद तनाव से मुक्त होती है

बूंद
तृप्त कर देती है अतृप्त मन को
सींच देती है
अपनत्व का बगीचा
बूंद
तुम्हारे कारण ही
धरती पर जिंदा है हरियाली
जिंदा है जीवन-----

◆ज्योति खरे

शनिवार, मई 21, 2022

चाय की चुस्कियों के साथ

चाय की चुस्कियों के साथ
********************
हांथ से फिसलकर
मिट्टी की गुल्लक क्या फूटी
छन्न से बिखर गयी
चिल्लरों के साथ
जोड़कर रखी यादें 

कुहरे को चीरती उभर आयीं 
शहर की पुरानी गलियों में जमी मुलाकात
जब एक सुबह 
खिड़कियों को खोलते समय
पास वाली सड़क पर लगे
ठेले पर
चाय की चुस्कियों के साथ
तुम्हें देखा था
चहक रहे थे तुम
तुम्हारी वह चहक
भर रही थी 
मेरे भीतर की खाली जगहों को
उन दिनों मैं भी 
चहकने लगी थी
चिड़ियों की तरह
जब गर्म चाय को फूंकते समय
तुम्हारे होंठ से
निकलती थी मीठी सी धुन 
मैं उन धुनों को सुनने 
आना चाहती थी तुम्हारे पास

तुम्हारी आंखें भी तो
खिड़की पर खोजती थी मुझे
फिर 
आखों के इशारे से
तुम्हारे चेहरे पर खिल जाते थे फूल
दिन में कई बार खोलती खिड़की
और देखती
कि तुम्हारे चेहरे पर
खिले हुए फूल 
चाय के ठेले के आसपास तो
नहीं गिरे हैं

टूटी हुई गुल्लक को 
समेटते समय
तुम फिर याद आ रहे हो
तुम भी तो 
याद करते होगे मुझे

खिंच रहीं
काली धूप की दीवारों के दौर में
कभी मिलेंगे हम 
जैसे आपस में 
खेतों को मिलाती हैं मेड़
मुहल्लों को मिलाती हैं
पुरानी गलियां
और बन जाता है शहर
 
एक दिन 
तुम जरूर आओगे
उसी जगह 
जहां पीते थे 
चुस्कियां लेकर चाय
और मैं
खिड़कियां खोलकर
करूंगी
तुमसे मिलने का ईशारा

उस दिन
तुम कट चाय नहीं
फुल चाय लेना
एक ही ग्लास में पियेंगे
और एक दूसरे की चुस्कियों से निकलती
मीठी धुनों को
एक साथ सुनेंगे

◆ज्योति खरे

मंगलवार, मई 17, 2022

अभिवादन के इंतजार में

सामने वाली 
बालकनी से
अभी अभी 
उठा कर ले गयी है
पत्थर में लिपटा कागज

शाम ढले
छत पर आकर
अंधेरे में 
खोलकर पढ़ेगी कागज

चांद
उसी समय तुम
उसके छत पर उतरना
फैला देना 
दूधिया उजाला
तभी तो वह
कागज में लिखे 
शब्दों को पढ़ पाएगी
फिर
शब्दों के अर्थों को
लपेटकर चुन्नी में
हंसती हुई
दौड़कर छत से उतर आएगी

मैं
अपनी बालकनी में
उसके 
अभिवादन के इंतजार में
एक पांव पर खड़ा हूँ----

◆ज्योति खरे

गुरुवार, मई 05, 2022

कैसी हो फरज़ाना

कैसी हो "फरज़ाना"
***************
अक्सर 
बगीचे में बैठकर
करते थे
घर,परिवार की बातें
टटोलते थे
एक दूसरे के दिलों में बसा प्रेम

आज उसी बगीचे में
अकेले बैठकर
लिख रहा हूं
धूप के माथे पर
गुजरे समय का सच

जब तुम
हरसिंगार के पेड़ के नीचे 
चीप के टुकड़े पर
बैठ जाया करती थी
मैं भी बैठ जाता था
तुम्हारे करीब
और निकालता था
तुम्हारे बालों से
फंसे हुए हरसिंगार के फूल
इस बहाने
छू लेता था तुम्हें
डूब जाता था
तुम्हारी आंखों के
मीठे पानी में

एक दिन
लाठी तलवार भांजती
भीड़ ने
खदेड़ दिया था हमें
उसके बाद
हम कभी नहीं मिले

अब तो हर तरफ से 
खदेड़ा जा रहा है प्रेम
सूख गयी है 
बगीचे की घास
काट दिया गया है
हरसिंगार का पेड़ 

उम्मीद तो यही है
कि, दहशतज़दा समय को
ठेंगा दिखाता
एक दिन फिर बैठेगा 
बगीचे की हरी घास पर प्रेम
फिर झरेंगे हरसिंगार के फूल

तुम भी इसी तरह की
दुआ मांगती होगी
कि, कब
धूप और लुभान का
धुआं 
जहरीले वातावरण को
सुगंधित करेगा

कैसी हो फरज़ाना
इसी बगीचे में 
फिर से मिलो
एक दूसरे की बैचेनियां
फिर से 
साझा करेंगे---

◆ज्योति खरे

रविवार, मई 01, 2022

मजदूर

मजदूर 
*****
सपनों की साँसें 
सीने में
बायीं ओर झिल्ली में बंद हैं
जो कहीं गिरवी नहीं रखी
न ही बिकी हैं,
नामुमकिन है इनका बिकना

गर्म,सख्त,श्रम समर्पित हथेलियों में
खुशकिस्मती की रेखाएं नहीं हैं
लेकिन ये जो हथेलियां हैं न !
इसमें उंगलियां हैं
पर पोर नहीं
सीधी-सपाट हैं
नाख़ून पैने
नोचने-फाड़ने का दम रखते हैं 

पैरों की एड़ियां कटी-फटी,तलवे कड़े
घुटने,पंजे,पिडलियां कठोर
पांव जो महानगरीय सड़कों पर 
सुविधा से नहीं चल पाए
राजपथ में
दौड़ने का साहस रखते हैं

छाती में विशाल हृदय 
मजबूत फेफड़ा है
जिसकी झिल्ली में बंद हैं
सपनों की साँसे 

इन्हीं साँसों के बल 
कल जीतने की लड़ाई जारी है
और जीत की संभावनाओं पर
टिके रहने का दमखम है
क्योंकि,
इन्हीं साँसों की ताकत में बसा है 
मजदूर की
खुशहाल ज़िन्दगी का सपना----

◆ज्योति खरे

मजदूर दिवस जिंदाबाद

रविवार, अप्रैल 24, 2022

किस्से सुनाने

किस्से सुनाने
-----------------
बारूद में लिपटी
जीवन की किताब को
पढ़ते समय
गुजरना पड़ता है
पढ़ने की जद्दोज़हद से

दहशतजदा दीवारों में 
जंग लगी
खिड़कियों को बंद कर
देखना पड़ता है
छत की तरफ़
नींद में चौंककर
रोना पड़ता है
बच्चों की तरह

पत्थर में बंधे
तैरते समय को
डूबने से बचाने
फड़फड़ाना पड़ता है
कि कहीं डूब न जाए
रेगिस्तानी नदी में

अपने वजन से भी ज्यादा
किताबें उठाकर
जंगली दुनियां से निकलकर
भागना चाहता हूं
गिट्टियों की शक्ल में 
टूट रहे पहाड़ों के बीच
उन्हें
किताबों में लिखे
सच्ची मुच्ची के
किस्से सुनाने---

◆ज्योति खरे

गुरुवार, अप्रैल 14, 2022

फिर लिखूंगी नए सिरे से

स्कूल की 
टाटपट्टी में बैठकर
स्लेट में 
खड़िया से लिखकर सीखा
भविष्य का पहला पाठ
फिर प्रारंभ हुआ
अपने आप को
समझने का दूसरा पाठ
तीसरे पाठ में 
समझने लगी
दुनियादारी

इस शालीन दौर से गुजरते हुए
मुझे भी हुआ प्रेम
शायद उसे भी हुआ होगा
तभी तो 
मुझसे कहकर गया था
जा रहा हूँ शहर
जीने का साधन जुटाने
लौटकर आऊंगा
तुम्हें लेने

शिकायत नहीं है मुझे
उससे
कि वह लौटा नहीं

फैसला मेरे हाथ में है
कि,किस तरह जीवन बिताना है
छुपकर रोते हुए
या खिलखिलाकर
खुरदुरे रास्तों को पूर कर

हांथों की लकीरों को
रोज सुबह
माथे पर फेर लेती हूं
और शाम होते ही
बांस की खपच्चियों से
जड़ी खिड़की पर
खड़ी हो जाती हूँ
यादों में
नया रंग भरने

अपलक आंखों के
गिरते पानी से
एक दिन
धुल जाएंगे
सारे प्रतिबिम्ब
फिर नए सिरे से लिखूंगी
खड़िया से
स्लेट पर
इंतजार---

◆ज्योति खरे

मंगलवार, मार्च 29, 2022

31 मार्च मीना कुमारी की पुण्य तिथि पर


गम अगरबत्ती की तरह 
देर तक जला करते हैं--
******************
मीना कुमारी ने हिंदी के जाने माने गीतकार और शायर गुलजार जी से एक बार कहा था
"ये जो एक्टिंग मैं करती हूं उसमें एक कमी है,ये फन,ये आर्ट मुझसे नहीं जन्मा है,ख्याल दूसरे का,किरदार किसी का और निर्देशन भी किसी का,मेरे अंदर से जो जन्मा है,
वह मैं लिखती हूं,जो कहना चाहती हूं,
वही लिखती हूं क्योंकि यह मेरा अपना है."

मीना कुमारी ने अपनी कविताएं छपवाने का जिम्मा गुलजार जी को दिया,जिसे उन्होंने "नाज" उपनाम से छपवाया,हमेशा तन्हां रहने वाली 
मीना कुमारी ने अपनी कई गज़लों के माध्यम से जीवन के इस दर्द को व्यक्त किया है.

' चांद तन्हां है आसमां तन्हां
दिल मिला है कहाँ कहाँ तन्हां
रात देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएंगे यह जहां तन्हां '

' ये मेरे हमनशी चल कहीं और चल 
इस चमन में तो अपना गुजारा नहीं 
बात होती गुलों तक तो
सह लेते हम 
अब काँटों पर भी हक़ हमारा नहीं '

भारतीय फिल्मों में
मीना कुमारी को उच्च कोटि का अभिनेत्री माना जाता है ,क्योंकि वह ऐसा सागर था जिसकी थाह पाना मुस्किल था,बाहर से कौतूहल भरा,भीतर से गंभीर,उनके मन में कितने तूफान उमडते थे,यह कोई नहीं जानता था,बस सब इतना जानते थे कि वे एक अभिनेत्री हैं.
मीना कुमारी वास्तविक प्रेम को सदैव महत्व दिया करती थीं,लेकिन प्रेम मार्ग में जो उन्हें ठोकरें मिली,उसी दर्द को जीते हुए उन्होंने  अभिनय किया और वे
दुखांत भूमिकाओं की रानी बन गयी.
दर्द,तड़प,और आंसुओं से भरी जिंदगी में उनके पास कुछ न था,उनके पास था तो बस उनका अपना शायराना अंदाज.

' मसर्रत पे रिवाजों का सख्त पहरा है  
ना जाने कौन सी उम्मीद पर दिल ठहरा है 
तेरी आँखों से छलकते हुये इस गम की कसम 
ये दोस्त दर्द का रिश्ता बहुत गहरा है '

मीना कुमारी का जन्म १अगस्त १९३२ में हुआ था,इनकी माँ इकबाल बेगम अपने जमाने की प्रसिद्ध अदाकारा थी,मीना कुमारी पर अपनी माँ का प्रभाव पड़ा और इनका झुकाव अभिनय की तरफ बढ़ा,उन दिनों वे गरीबी के दिन से गुजर रहीं थी,उस वक़्त उनकी उम्र करीब आठ साल की रही होगी,गन्दी सी बस्ती में रहने वाली बालिका पर एक दिन स्वर्गीय मोतीलाल की निगाह पड़ी और मीना जी का भाग्य वहीँ से चमकना शुरू हो गया,सर्वप्रथम मीना कुमारी ने "बच्चों का खेल" फिल्म में अभिनय किया,कुछ दिनों तक बाल अभिनेत्री के रूप में अभिनय करने के बाद मीना जी को फिल्मों से किनारा करना पड़ा,कुछ सालों बाद वाडिया ब्रदर्स ने उन्हें फिल्मों में पुनः स्थापित किया,फिर तो मीना जी निरंतर फिल्मो में काम करती रहीं.

' जिन्दगी आँख से टपका हुआ बे रंग कतरा 
तेरे दामन की पनाह पाता तो आंसू होता '

मीना कुमारी जिनका नाम "महज़बी" था दुखांत भूमिकाओं की रानी बन गयी,उनके पास दौलत,
शौहरत थी मगर प्रेम,प्यार नहीं था.
कमाल अमरोही से विवाह किया लेकिन बाद में अलग होना पड़ा,प्रेम की चाह अंत तक उनके ज़ेहन में बसी रही और उन्हें रुलाती रही.

' पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात खैरात की सदके की सहर होती है 
जैसे जागी हुई आँखों में चुभे कांच के ख्वाब 
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है '

भोली सूरत,बड़ी सी प्यारी आँखें और मासूम सा चेहरा,गुलाबी होंठ,सचमुच मीना जी समुद्र में पड़ते चंद्रमा के प्रतिबिम्ब के समान थीं,उनके मन में,प्यार था,सत्कार था,पर उनकी वास्तविक भावनाओं को समझने वाला कोई न था,उनकी आंखें ही बहुत कुछ बोलती थीं.

' बॊझ लम्हों का लिए कंधे टूटे जाते हैं           बीमार रूह का यह भार तुम कहीं रख दो 
सदियां गुजरी हैं कि यह दर्द पपोटे झुके
तपते माथे पर जरा गर्म हथेली रख दो '

गमों की राह से गुजरी
मीना जी वास्तव में एक हीरा थीं,वे प्यार जुटाना चाहती थी,प्यार पाना चाहती थी,प्यार बांटना चाहती थीं,इसी प्यार की प्यास ने उन्हे अंत तक भटकाया.
                      
' यूँ तेरी राहगुजर से दीवाना बार गुजरे
कांधे पे अपने रख के अपना मज़ार गुजरे 
मेरी तरह सम्हाले कोई तो दर्द जानूं
एक बार दिल से होकर परवर दिगार गुजरे 
अच्छे लगे हैं दिल को तेरे ज़िले भी लेकिन
तू दिल को हार गुजरा
हम जान हार गुजरे '

एक बेहतरीन अदाकारा,एक बेहतरीन शायरा,अपने चाहने वालों को अपना प्यार,
दर्द और कुछ नगमें दे गयीं,ऐसा लगता है मीना जी आज भी तन्हाई में रह रहीं हैं और अपने चाहने वालों से कह कह रहीं हैं----

' तू जो आ जाये तो इन जलती हुई आँखों को
तेरे होंठों के तले ढेर सा आराम मिले            तेरी बाहों में सिमटकर तेरे सीने के तले 
मेरी बेखाव्ब सियाह रातों को आराम मिले

एक पाकीज़ा शायरा की यादें, 
प्यार करने वालों के दिलों में हमेशा जिन्दा रहेंगी--

◆ज्योति खरे

गुरुवार, मार्च 24, 2022

सन्नाटे से संवाद


कुएं के पास 
उसके आने के इंतज़ार में
घंटों खड़ी रहती 
बरगद की छांव तले बैठकर
मन में उभरती 
उसकी आकृति को
छूने की कोशिश करती थी
तालाब में कंकड़ फेंकते समय
यह सोचती थी
कि,वह आकर 
मेरा नाम पूछेगा

वह आसपास मंडराता रहा
और मुझसे मिलने
मेरे पास बैठने से
कतराता रहा 

दशकों बाद
एकांत में बैठी मैं
घूरती हूं सन्नाटे को
और सन्नाटा 
घूरता है मुझे
इस तरह से
एक दूसरे को घूरने का मतलब
कभी समझ में आया ही नहीं  

समझ तो तब आया
जब सन्नाटे ने चुप्पी तोड़ी
उसने पूछा
एकांत में बैठकर
किसे देखती हो
मैंने कहा
जिसने मुझे
अनछुए ही छुआ था
उसकी छुअन को पकड़ना चाहती हूं 

काश!
वह एक बार आकर 
मुझे फिर से छुए
और मेरी आँखें
मुंद जाये गुदगुदी के कारण--

◆ज्योति खरे

रविवार, मार्च 20, 2022

आजकल वह घर नहीं आती

आजकल वह घर नहीं आती
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धूप चटकती थी तब
लाती थी तिनके
घर के किसी सुरक्षित कोने में
बनाती थी अपना 
शिविर घर
जन्मती थी चहचहाहट
गाती थी अन्नपूर्णा के भजन
देखकर आईने में अपनी सूरत
मारती थी चोंच

अब कभी कभार
भूले भटके
आँगन में आकर
देखती है टुकुर मुकुर
खटके की आहट सुनकर
उड़ जाती है फुर्र से

शायद उसने धीरे धीरे
समझ लिया 
आँगन आँगन
जाल बिछे हैं
हर घर में
हथियार रखे हैं
तब से उसने 
फुदक फुदक कर
आना छोड़ दिया है---

◆ज्योति खरे
#विश्वगौरैयादिवस

मंगलवार, मार्च 15, 2022

टेसू और फागुन

टेसू और फागुन
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कटे हुए टेसू का हालचाल
पूंछने 
सालभर में एक बार आता है फागुन
टेसू फागुन से मिलते ही
टपकाने लगता है
विकास के पांव तले कुचले
खून से सने 
अपने फूलों के रंग

कहता है अपने दोस्त
फागुन से 
तुम
प्रेम के रंगों से भरे 
रहस्यों को
शहर की गलियों में
रह रहे लोगों को समझाओ
कुझ दिन झोपड़ पट्टी में भी गुजारो
भूखे बच्चों से बात करो
उजड़ रहे गांव में जाओ
जहां पैदा तो होता है अनाज
पर रोटियां की कमी है
एक चुटकी गुलाल
मजदूरों के गाल पर भी
मलो
क्योंकि इन्हें सम्हलने में लंबा समय लगेगा
मेरा क्या
मैं अपने कटे जाने की
पीड़ा से
एक दिन मुक्त हो जाऊंगा
सूखकर 
मिट्टी में मिल जाऊंगा

फागुन
तुम्हें हर साल आना है
क्यों सूख रहे हैं
प्रेम के रंग
उनका जवाब देना है ---

◆ज्योति खरे

सोमवार, मार्च 07, 2022

उपेक्षा के दौर से गुजर रहीं मजदूर नारियां

संदर्भ महिला दिवस
उपेक्षा के दौर से गुजर रही हैं मजदूर नारियां
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नारी की छवि एक बार फिर इस प्रश्न को जन्म दे रही है कि,क्या भारतीय नारी संस्कारों में रची बसी परम्परा का निर्वाह करने वाली नारी है,या वह नारी है जो अपने संस्कारों को कंधे पर लादे मजदूरी का जीवन व्यतीत कर रही है.
परम्परागत भारतीय नारी और दूसरी तरफ बराबरी के दर्जे का दावा करने वाली आधुनिक भारतीय नारियां हैं,पर इनके बीच है, हमारी मजबूर मजदूर उपेक्षा की शिकार एक अलग छवि वाली नारी,इस नारी के विषय में कोई बात नहीं करता है.
नारी की नियति सिर्फ सहते रहना है-यह धारणा गलत है,इस धारणा को बदलने की आवाज चारों तरफ उठ रही है,आज की नारी इस धारणा से कुछ हद तक उबरी भी है.नारी किसी भी स्तर पर दबे या अन्याय सहे यह तेजी से बदल रहे समय में उचित नहीं है,लेकिन एक बात आवश्यक है कि इस बदलते परिवेश में इतना तो काम होना चाहिए कि मजदूर नारियों की स्थितियों को भी बदलने का कार्य होना चाहिए.
एक ही देश में,एक ही वातावरण में,एक जैसी सामाजिक स्थितियों में जीने वाली नारियों में इतनी भिन्नता क्यों?
वर्तमान में नारियों के पांच वर्ग हो गये हैं-----
१- नारियां जो पुर्णतः संपन्न हैं न नौकरी करती हैं न घर के काम काज
२- नारियां जो अपनी आर्थिक स्थिति को ठीक रखने के लिये नौकरी करती हैं अथवा सिलाई,बुनाई,ब्यूटी पार्लर आदि चलाती हैं
३- नारियां जो केवल अपना समय व्यतीत करने के लिये साज श्रृंगार के लिये,अधिक धन कमाने के लिये नौकरी करती हैं
४- नारियां जो केवल गृहस्थी से बंधीं हैं
५- नारियां जो अपना,अपने बच्चों का पेट भरने,घर को चलाने, मजदूरी करती हैं,
ये नारियां हमारे सामाजिक वातावरण में चारों तरफ घूमती नजर आती हैं 
पांचवे वर्ग की नारी  आर्थिक और मानसिक स्थिति से कमजोर है,ऐसी नारियों का जीवन प्रतारणाओं से भरा होता है,कुंठा और हीनता से जीवन जीने को विवश ये मजदूर नारियां तथाकथित नारी स्वतंत्रता अथवा नारी मुक्ति का क्या मूल्य जाने,इन्हें तो अपने पेट के लिये मेहनत मजदूरी करते हुए जिन्दगी गुजारना पड़ती है.
नेशनल पर्सपेक्टिव प्लान फार विमेन,सरकार के प्रयासों से तैयार एक योजना है,जिसे बनाने में महिला संगठनों की भागीदारी है,इसको बनाने के पहले महिलाओं की समस्या को सात खण्डों में बांटा गया है,रोजगार,स्वास्थ,शिक्षा,
संस्कृति,कानून,सामाजिक उत्पीडन,ग्रामीण विकास तथा राजनीती में हिस्सेदारी.
वूमन लिबर्टी अर्थात नारी मुक्ति की चर्चायें चारों ओर सुनाई देती हैं,बड़ी बड़ी संस्थायें नारी स्वतंत्रता की मांग करती हैं,स्वयं नारियां नारी मुक्ति के लिये आवाज उठाती हैं,आन्दोलन करती हैं,सभायें करती हैं,बडे बडे बेनर लेकर नारे लगाती हैं,
विचारणीय प्रश्न यह है कि मजदूरी कर जीवन चलाने वाली नारी अपना कोई महत्त्व नहीं रखती,इसके लिए क्या हो रहा है,क्या देश के महिला संगठन इनके उत्थान के लिए कभी आवाज उठायेंगे.
आज भी अधिकांश नारियां मजदूरी करती हैं, जो उपनगर या गाँव में रहती हैं और निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों की हैं,उनकी मजदूरी के पीछे भी स्वतंत्र अस्तित्व की चाह उतनी ही है, जितनी आधुनिक सामाजिक जीवन जीने वाली नारियों में है.
गाँव में ज्यादातर नारियां गरीब परिवारों की हैं, जो मजदूरों के रूप में खेतों पर,शहर में रेजाओं के रूप में,और कई अन्य जगह काम करती हैं,जी जान लगाकर दिनभर मेहनत करती हैं, पर वेतन पुरषों की तुलना में कम मिलता है,पिछले तीन दशकों में बनी अधिकांश कल्याणकारी योजनाओं के ज्यादातर फायदे उन्हीं नारियों के लिये हैं,जो उच्च आय में हैं,उच्च शिक्षा प्राप्त हैं.
उच्च वर्ग की नारियां मुक्त से ज्यादा मुक्त हैं ,किटी पार्टियाँ करती हैं,क्लबों में डांस करती हैं,फैशन में भाग लेती हैं,इनकी संख्या कितनी है,क्या इन्ही गिनी चुनी नारियों की चर्चा होती है,सही मायने मैं तो चर्चा मजदूर नारियों की होनी चाहिये.
महिला दिवस हर वर्ष आता है और चला जाता है,मजदूर नारियां ज्यों की त्यों हैं,नारी मुक्ति की बात तभी सार्थक होगी कि जब "महिला मजदूर"के उत्थान की बात हो,वर्ना ऐसे "महिला दिवस"का क्या ओचित्य जिसमें केवल स्वार्थ हो.

◆ज्योति खरे

रविवार, फ़रवरी 27, 2022

युद्ध की कहानियां

युद्ध की कहानियां
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लिखी जा रही हैं
संवेदनाओं की पीठ पर
युद्ध की कहानियां

झुंझलाते, झल्लाते 
वातावरण में
बांटा जा रहा है 
डिस्पोजल ग्लास में पानी
पीने वालों को 
हर घूंट कड़वा लग रहा है
लेकिन फिर भी पी रहें हैं
घूंट घूंट पानी

जश्न या मातम के दौरान
सुनाई जाती हैं
या गढ़ी जाती हैं
विद्रोह की कहानियां
ऐसे समय में 
पड़ती है पानी की ज़रूरत
क्योंकि
सदमें में
चीख चिल्लाहट में
सूख जाता है गला

विभाजित खेमों को
हालात का अंदाज़ा नहीं है
कि,दहशतज़दा लोग
सफेद चादरों पर बैठे
सिसक रहे हैं
कि,कब कोई जानी पहचानी लाश 
आंख के सामने से न गुजर जाए

काश!
युद्ध की 
कहानियां सुनते समय
किसी के 
कराहने की 
आवाज न सुनाई दे-----

◆ज्योति खरे

सोमवार, फ़रवरी 21, 2022

प्यार मैं ही, मैं करूं

प्यार मैं ही, मैं करूं
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मन-मधुर वातावरण में
प्यार बाँटें
प्यार कर लें

दु:ख अपने पांव पर
जो खड़ा था,
अब दौड़ता है
हर तराशे सुख के पीछे
कोई पत्थर तोड़ता है

आओ करें हम
नव सृजन-
एक मूरत और गढ़ लें

'प्यारे', 
प्यार मैं ही मैं करूं
और तुम कुछ ना करो
कैसे बंधाऊं आस मन को
तुम 'न' करो, न 'हाँ' करो!

रतजगे-सी जिन्दगी में
हम कहाँ से
नींद भर लें----

लंबा सफ़र है 
हम सभी का
हम मुसाफिर हैं सभी
दौड़ते हैं, हांफते हैं 
या बैठते हैं हम कभी

यह सिलसिला है राह का,
प्यार से 
कुछ बात कर लें-----

"ज्योति खरे"

गुरुवार, फ़रवरी 17, 2022

जब से तुमने

जब से तुमने
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जब से तुमने
लहरों की तरह
उसके भीतर 
मचलना शुरू किया 
वह
समुंदर हो गया

जब से तुमने
इशारे से बुलाकर 
उसके कान में कहा 
तुम मेरे दोस्त हो 
वह
मैं बोलने लगा
सुनने भी लगा

जब से तुमने 
उसकी उंगलियों को
अपनी उंगलियों में
फसाकर 
साथ चलने को कहा
वह
अपरिचितों की भीड़ में
परिचित होने लगा

जब से तुमने 
सबके सामने 
उसको गले लगाया
वह 
साधारण आदमी से
विशेष आदमी बन गया----

◆ज्योति खरे