छितर-बितर हो जाता है
महकने लगती है
तम्बाखू में चंदन
गायब हो जाता है
कमर का दर्द
अचानक
शहद सा चिपचिपाने लगता है
झल्लाता वातावरण
धीमी रौशनी
और धीमी हो जाती है
उलाहना और पचड़े की पुड़िया का
टूटकर बिखर जाता है
मौन संवाद
उखड़ती सांसों के बाद भी
अपने अपने अस्तित्व की
ऐंठ बनी रहती है
ताव में रख ली जाती है
पिछले जेब में पचड़े की पुड़िया
खोलकर रख दिया जाता है
उलाहने का बंडल
संबंध
किसी के
किसी से भी
कहां कायम रह पाते हैं -------
"ज्योति खरे"
चित्र--
गूगल से साभार
27 टिप्पणियां:
संबंध किसी से किसी से भी कहां कायम रह पाते हैं -------बहुत बढ़िया चित्रण..इंसानी मनोभावों का
सुन्दर प्रस्तुति !!
संबंध किसी से किसी से भी कहां कायम रह पाते हैं -------बहुत बढ़िया चित्रण
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
आपकी इस उम्दा रचना को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -२२ निविया के मन से में शामिल किया गया है कृपया अवलोकनार्थ पधारे
सम्बन्धों का धन और ॠण, क्या खूब प्रकट किया है।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
बहुत बेहतरीन प्रस्तुति...
:-)
समय की ठोकरें खाकर बहुत गिने चुने संबंध ही कायम रह पाते है. अति सुन्दर रचना.
संबधों के टूटने जुडने का सुंदर चित्रण।
बेहतरीन रचना...!सम्बन्धों का सुंदर चित्रण...! नवरात्रि की शुभकामनाएँ ...!
RECENT POST : अपनी राम कहानी में.
bahut sunder chitran
भाव पूर्ण रचना |
सुन्दर रचना ...
विडंबनाओं से रचा समबन्ध संसार आज ऐसा ही है जहां दो विपरीत ध्रुओं के लोग साथ साथ क्रीडा करते हैं .बढ़िया अभिनव प्रतीक रचे हैं आपने .
बहुत ही लाजवाब बिम्ब के माध्यम से संबंधों का लेखा जोखा रखा है ... बहुत ही प्रभावी ....
दशहरा की मंगल कामनाएं ...
बहुत सुन्दर .
बहुत सुन्दर .
सुन्दर रचना.
रचना अच्छी लगी आपकी। बधाई
बहुत सुंदर कविता, हार्दिक बधाई
बहुत सुंदर कविता.इंसानी मनोभावों का सुंदर चित्रण.
विजयादशमी की शुभकामनाएँ.
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति....
ह्रदय की वेदना है यह जो आपके शब्दों में घुली है। दुखद तो है, पर संबन्ध बनाए रखने के लिए दोनों पक्षों को उत्कृष्ट श्रोता होना ज़रूरी है.. सुनना और बातों को उसी लहज़े में समझने से खेल बिगड़ जाता है और पचड़े की पुड़िया और उलाहनों का बंडल बढ़ता ही चला जाता है। बहुत अच्छा लिखा है सर। दशहरा शुभ हो।
प्रशंसनीय प्रस्तुति
अत्यंत गहन एवँ उत्कृष्ट प्रस्तुति ! शब्दों की बाजीगरी बहुत कुछ संप्रेषित कर जाती है जो निश्चित रूप से चिंतनीय एवँ मननीय है ! बहुत सुंदर !
सही कहा आपने भाई जी ..
आभार !!
'परस्पर सम्बन्धों का ताना-बाना ही समाज है'यह तो मात्र समाजशास्त्रीय सूत्र है। आज कहाँ संबंध स्थाई रहते हैं। ठीक किया है आंकलन।
peedaon ka swar mukhar hota hai ..bahut sundar .
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