शनिवार, जून 20, 2020

पापा

अंधेरों को चीरते
सन्नाटे में 
अपने से ही बात करते पापा
यह सोचते थे कि
कोई उनकी आवाज 
नहीं सुन रहा होगा

मैं सुनता था

कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे

उम्र के साथ 
पापा ने अपनी दशा और 
दिशा बदली
पर भीतर से नहीं बदले पापा
क्योंकि
उनके जिंदा रहने की वजह
रिश्तों के असतित्व को 
बचाने की जिद थी

पापा 
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र

आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते के जेब में
रखने वाले पापा
वास्तविक जीवन के हकदार थे

पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर 
सांकल
खटखटाते हैं------

"ज्योति खरे"



10 टिप्‍पणियां:

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२१ -०६-२०२०) को शब्द-सृजन-26 'क्षणभंगुर' (चर्चा अंक-३७३९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत सुन्दर।
पितृ दिवस की बधाई हो।

विश्वमोहन ने कहा…

वाह! अप्रतिम भावों को कुरेदती रचना। बधाई!!!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

पापा हमेशा हर जगह एक से होते हैं।

Meena Bhardwaj ने कहा…

पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र
पापा के मन को एक बेटे का अनुपम सम्मान । बहुत सुन्दर सृजन पिता के सम्मान में ।

Rakesh ने कहा…

कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे
लाजवाब शब्द बहुत बढ़िया सर

Sudha Devrani ने कहा…

पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र
वाह!!!
अनुपम भाव....
लाजवाब सृजन।

गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने कहा…

आह निःशब्द हूँ इस कविता को पढ़कर . बस एक ही शब्द ..अनुपम . चर्चा मंच का धन्यवाद कि ऐसी रचनाएं भी पढ़ने मि जातीं हैं

मन की वीणा ने कहा…

अभिनव भाव मीना सृजन। सुंदर अद्भुत।

Jyoti khare ने कहा…

बहुत आभार आपका