सन्नाटे में
अपने से ही बात करते पापा
यह सोचते थे कि
कोई उनकी आवाज
नहीं सुन रहा होगा
मैं सुनता था
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे
उम्र के साथ
पापा ने अपनी दशा और
दिशा बदली
पर भीतर से नहीं बदले पापा
क्योंकि
उनके जिंदा रहने की वजह
रिश्तों के असतित्व को
बचाने की जिद थी
पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र
आंसुओं को समेटकर
अपने कुर्ते के जेब में
रखने वाले पापा
वास्तविक जीवन के हकदार थे
पापा
आज भी
दरवाजे के बाहर खड़े होकर
सांकल
खटखटाते हैं------
"ज्योति खरे"
10 टिप्पणियां:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार(२१ -०६-२०२०) को शब्द-सृजन-26 'क्षणभंगुर' (चर्चा अंक-३७३९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
--
अनीता सैनी
बहुत सुन्दर।
पितृ दिवस की बधाई हो।
वाह! अप्रतिम भावों को कुरेदती रचना। बधाई!!!
पापा हमेशा हर जगह एक से होते हैं।
पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र
पापा के मन को एक बेटे का अनुपम सम्मान । बहुत सुन्दर सृजन पिता के सम्मान में ।
कांच के चटकने जैसी
ओस के टपकने जैसी
पेड़ से शाखाओं के टूटने जैसी
काले बादलों से निकलकर
बारिश की बूंदों जैसी
इन झणों में पापा
व्यक्ति नहीं
समुद्र बन जाते थे
लाजवाब शब्द बहुत बढ़िया सर
पापा
जीवन के किनारे खड़े होकर
नहीं सूखने देते थे
कामनाओं का जंगल
उड़ेलते रहते थे
अपने भीतर का
मीठा समुद्र
वाह!!!
अनुपम भाव....
लाजवाब सृजन।
आह निःशब्द हूँ इस कविता को पढ़कर . बस एक ही शब्द ..अनुपम . चर्चा मंच का धन्यवाद कि ऐसी रचनाएं भी पढ़ने मि जातीं हैं
अभिनव भाव मीना सृजन। सुंदर अद्भुत।
बहुत आभार आपका
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