बुधवार, दिसंबर 17, 2014

दुनियां की सभी माओं के आंसू ----


सीढ़ी पर बैठे बच्चे
बच्चे नहीं
समूची दुनियां के
नयी सदी के मनुष्य थे
 
सीढ़ी पर बैठकर बच्चे
घुप्प अंधेरे और
आतंक के साये में
जीवन की नयी संभावनाओं का
तार-तार बुन रहे थे
पढ़ रहे थे
मनुष्यता का पाठ
चाहते थे
दुनियां के हर बच्चेां से
दोस्ती करना
 
सीढ़ी पर बैठकर बच्चे
पकड़े थे माँ का आँचल
पापा की उंगली
दादा की लाठी
दादी का चश्मा
 
दुनियां के ये बच्चे
अपनी अपनी माँ से कह रहे थे
पोंछती रहें हर बच्चे के आंसू 
कह रहे थे पापा से
आतंक के अंधेरे को करते रहें नष्ट
तय करें उजाले का सफर
कह रहे थे दादी से
चश्मे के बिना तारे गिनों
दादा की लाठी से
बदलना चाहते थे
संस्कृति
 
सीढ़ी पर बैठे बच्चे
सभ्यता और संस्कृति की
भरी बंदूक से
मार दिये गए
पाठशाला में ही रंग गयी
मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाली किताबें
 
क्या अब
उसी सीढ़ी पर बैठकर बुद्धिजीवी
तलाशकर लौटा पायेंगे
मां की गोद के
लापता खून से लथपथ बच्चे
 
दुनियां के बचे हुए लोगो
सभ्यता और संस्कृति की
ओढ़कर तार-तार चादर
आसमान में देखो
ध्रुव तारे के पास से
बह रहे हैं
दुनियां की सभी माओं के आंसू ------

"ज्योति खरे"



शुक्रवार, अक्टूबर 10, 2014

करवा चौथ का चाँद-------

चाँद तो मैंने
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
मेरे आवारापन को
स्वीकारा था तुमने--

सूरज से चमकते गालों पर
पपड़ाए होंठों पर
रख दिये थे मैंने
कई कई चाँद----


चाँद तो
उसी दिन रख दिया था
हथेली पर तुम्हारे
जिस दिन
तमाम विरोधों के बावजूद
ओढ़ ली थी तुमने
उधारी में खरीदी
मेरे अस्तित्व की चुन्नी--


और अब
क्यों देखती हो
प्रेम के आँगन में
खड़ी होकर
आटे की चलनी से
चाँद----


तुम्हारी तो मुट्ठी में कैद है
तुम्हारा अपना चाँद----


"ज्योति खरे" 

चित्र - गूगल से साभार

बुधवार, अक्टूबर 08, 2014

शरद का चाँद -------

 
ख़ामोशी तोड़ो
सजधज के बाहर निकलो
उसी नुक्कड़ पर मिलो
जहाँ कभी बोऐ थे हमने
शरद पूर्णिमा के दिन
आँखों से रिश्ते -----


और हाँ !
बांधकर जरूर लाना
अपने दुपट्टे में
वही पुराने दिन
दोपहर की महुआ वाली छांव
रातों के कुंवारे रतजगे
आंखों में तैरते सपने
जिन्हें पकड़ने
डूबते उतराते थे अपन दोनों -----


मैं भी बाँध लाऊंगा
तुम्हारे दिये हुये रुमाल में
एक दूसरे को दिये हुए वचन
कोचिंग की कच्ची कॉपी का
वह पन्ना
जिसमें
पहली बार लगायी
लिपिस्टिक लगे होंठों के निशान
आज भी
पवित्र और सुगंधित है-----


क्योंकि अब भी तुम
मेरे लिए शरद का चाँद हो------
                                     "ज्योति खरे"  
 
 
चित्र- गूगल से साभार

रविवार, अक्टूबर 05, 2014

हादसों के घाव से रिस रहे खून------


रौशनियों की चकाचौंध में
उत्साह से भरा उत्सव
चमचमाता उल्लास
अचानक
अंधाधुंध भागते पैरों के तले
कुचल जाता है ----
 
ऐसा क्या हो जाता है
कि भीड़ अपनी पहचान मिटाती
भगदड़ का रुप ले लेती है
और समूचा वातावरण
मासूम, लाचार और द्रवित हो जाता है----
 
कुछ तो है
जिसके नेपथ्य में
अदृश्य इशारे
हादसों की कहानी गढ़ते हैं
और हमारी तमाम सचेतनाओं के बावजूद
हमारी तलाश से परे हैं
इनकी खामोश भूमिका
जीवन मूल्यों के टकराव का
शंखनाद करती हैं ----
 
हम आसमान को गिरते समय 
टेका लगाकर
धराशायी होने से बचाने वाले
और
हादसों के घाव से रिस रहे खून को
पोंछने वाले
खानदानी परिवार के सदस्य हैं ----
                                            
                                                 "ज्योति खरे"
 चित्र गूगल से साभार

 


रविवार, सितंबर 28, 2014

अम्मा का आशीष- मुझे मिला सरस्विता पुरस्कार---

 
              प्रसिद्ध रचनाकार,ब्लॉगर रश्मि प्रभा जी की
माताश्री सरस्वती प्रसाद जी की पहली पुण्यतिथि पर
"सरस्वती प्रसाद को समर्पित--सरस्विता पुरस्कार"
स्पोर्ट्स एंड रिक्रिएशन क्लब मयूर विहार,दिल्ली में
विख्यात साहित्यकार डॉ.सरोजनी प्रीतम ,
सुप्रसिद्ध कथाकार चित्रा मुदगल ,
वरिष्ठ कवि व गीतकार बालस्वरूप राही जी के
मुख्य आथित्य में 19 सितम्बर 2014 की शाम
वितरित किए गए.साथ ही रश्मि प्रभा जी के संपादन
में हिंदी युग्म से प्रकाशित
सरवस्ती प्रसाद जी की रचनाओं का संकलन
"एक थी तरु"का भी विमोचन हुआ.


सरस्विता पुरस्कार तीन विधाओं में दिये गये---
1. संस्मरण में- लावण्या शाह
2. कहानी में- डॉ स्वाति पांडे नलावडे
3. कविता में- ज्योति खरे
 इस गरिमामयी एवं भव्य समारोह की सबसे महत्वपूर्ण बात
यह थी कि प्रसाद परिवार की चार पीढ़ियों ने
स्व.सरस्वती प्रसाद जी को श्रद्धांजलि दी
एवं संगठित,संस्कारित विचारधारा की द्रष्टि भी
समाज के सामने प्रस्तुत की.

इस समारोह में वंदना गुप्ता, अंजू चौधरी, नीलिमा शर्मा,
मा समता,मुकेश कुमार सिन्हा,शैलेष भारतवासी,सरस दरबारी,
सोनिया गौड,मृदुला प्रधान,अपर्णा अनेकवर्णा, केदार नाथ,
अल्पना प्रिया राज, प्रिया गौतम की उल्लेखनीय उपस्थिति रही.
रश्मि प्रभा जी का अनूठा संयोजन,इनकी बहन
नीलम प्रभा का शिष्ट और मन को भावुक करने वाला
संचालन सचमुच अम्मा की आत्मा को समारोह में

उतार लाया था--- 
 









                  ज्योति खरे 

 

बुधवार, सितंबर 10, 2014

प्रेम के गणित में -----

 
 
गांव के
इकलौते तालाब के किनारे बैठकर
जब तुम मेरा नाम लेकर
फेंकते थे कंकड़
पानी की हिलोरों के संग
डूब जाया करती थी मैं
बहुत गहरे तक
तुम्हारे साथ ----
 
सहेजकर रखे मेरे खतों का 
हिसाब-किताब करते समय
कहते थे
तुम्हारी तरह
चंदन से महकते हैं
तुम्हारे शब्द ----
 
आज जब
यथार्थ की जमीन पर
ध्यान की मुद्रा में बैठती हूं तो
शून्य में
लापता हो जाते हैं सारे अहसास
 
प्रेम के गणित में
बहुत कमजोर थे अपन दोनों ----

                                "ज्योति खरे"

चित्र- गूगल से साभार



मंगलवार, सितंबर 02, 2014

भीतर ही भीतर -------

घर
घर के भीतर घर
कुछ कच्चे, कुछ पक्के
 
रिश्ते
रिश्तों के भीतर रिश्ते
कुछ मीठे, कुछ खट्टे
 
आंखें
आंखों के भीतर आंखें
कुछ धंसी हुई, कुछ नम
 
सपने
सपनों के भीतर सपने
कुछ अपने, कुछ पराये
 
भूख
भूख के भीतर भूख
कुछ रोटी की, कुछ पाने की
 
प्यास
प्यास के भीतर प्यास
कुछ पीने की,कुछ आस की
 
दुःख
दुःख के भीतर दुःख
कुछ खुरदुरे पहाड़ों सा
कुछ गठरी में बंधा मैले कपड़ों सा
 
सुख
सुख के भीतर सुख
संकरे तालाबों सा
कुछ लबालब,कुछ उथला सा
 
प्यार
प्यार के भीतर प्यार
कुछ चुन्नी सा सरकता
कुछ आँचल से लिपटता
 
जीवन
जीवन के भीतर जीवन
इसके भीतर ही भीतर है
बेहतर जीवन
कुछ छोटा सा,कुछ लम्बा सा ----

                               "ज्योति खरे"
चित्र-गूगल से साभार

गुरुवार, अगस्त 21, 2014

हम बेमतलब क्यों डर रहें हैं ----

सांप के कान नहीं होते
हम बेमतलब
जिरह की बीन
क्यों बजाने पर तुले हैं
 
माना कि
कर्ज की सुपारी में लपेटकर
भेजी जा रही है
जहरीली फुफकार
हम बेमतलब
जहर उतारने पर तुले हैं
 
किराय के कबूतरों को
उड़ने दो किराय के आसमान में
हम बेमतलब
अपने आसमान में
अपने पंछियों के
पर कुतरने में तुले हैं
 
हम बेमतलब
क्यों डर रहें हैं
घाटियां हमारी
वादियां हमारी
 
हम तो
जहरीले पेड़ों को
जड़ से उखाड़ने पर तुले हैं ------
 
                                  "ज्योति खरे"

चित्र गूगल से साभार


सोमवार, अगस्त 18, 2014

कृष्ण ने कल मुझसे सपने में बात की -------

 
आधुनिक काल की
कंदराओं से निकलकर
मेरा कब सार्वजानिक जीवन में
प्रवेश हुआ होगा
मुझे नहीं मालूम ----
 
मेरी भक्ति की सारी मान्यतायें
भक्ति काल में ही
सिकुड़ कर रह गयी हैं
जैसे सूती कपड़े को पहली बार
धोते समय होता है -----
 
कॉटन की साड़ियों से
द्रोपती का तन ढांकने वाला मैं
नारियों को देखकर
स्वयं ही मंत्र मुग्ध हो जाता हूँ
चीरहरण के समय की
अपनी उपस्थिति को भूल जाता हूँ -----
 
मैं
सार्वजनिक जीवन में सबका नायक हूँ
राजनितिक दलों का महासचिव
बॉलीवुड का सिंघम -----

सूचनाओं के अभाव में
मुझे कई कांडों का पता ही नहीं चल पाता
क्योंकि मेरी अंतरात्मा मर चुकी है
और मैं
बियर बार में
युवा मित्रों को
प्यार के गुर सिखाता रहता हूँ
हजार प्रेमिकाओं को कैसे डील करें
उसकी तरकीब बताता रहता हूँ -----
 
मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली मानता हूँ
कि आज भी मेरे जन्मदिन पर
शुद्ध घी के असंख्य दीपक जलाकर 
प्रार्थना करते हैं लोग
हे कृष्ण
घर परिवार,नाते-रिश्तेदारी से
कोई लेना देना नहीं है
आप तो बस प्रेम करने के पूरे गुण सिखा दें --------
 
                                               "ज्योति खरे"



   

शुक्रवार, अगस्त 15, 2014

आजादी ------ ???

 
समय की रेत पर
अंधाधुंध भागते पैरों के निशान
गवाह हैं कि
चीरकर गुलामी को
फेंफड़ों में भर दी गयी गई थी
आजाद सांसें
 
आज यही सांसें
सबसे मासूम
सबसे नर्म
और सबसे अधिक लाचार हैं
 
पागल कोख से जन्मी
पागल आजादी
अपने जिस्म को
खूंखार वहशियों के हत्थे
चढ़ती, उतरती
नजरों से बचती
सड़कों पर घूम रही है
लावारिस,अशांत
किसी दुत्कारे जानवर की तरह
 
समय की काली रेत पर 
आजादी को
नोंचने,खसोटने 
अपनी बांहों में भरने की होड़ में
खोखले आचरण
खोखली औपचारिकता
खोखले संबंधों को
उढ़ा रहें हैं
केशरिया,सफेद,हरा
 
समय की रेत पर
सफर का पहला कदम रखने से पहले
यह तय करना होगा
सड़कों पर भटकती
लावारिस आजादी को
घर लाना है ------
 
"ज्योति खरे"

 

शुक्रवार, अगस्त 01, 2014

आवाजें सुनना पड़ेंगी -----

 
 
 
                         जो कुछ भी कुदरती था
                         उसकी सांसों से
                         आने लगी हैं
                         कराहने की आवाजें --
 
                         जमीनी विवादों के
                         संकटों को टालने
                         खानदानी परतों को तोड़कर
                         भागने लगी है जमीन --

                          गंदगी से बचने
                          क्रोध में भागती नदी
                          भूल जाती है रास्ता
                          अपने बहने का --
 
                           जंगली जड़ी बूटियों पर
                           डाका पड़ने के बाद
                           जम गई है
                           पेड़ों के घुटनों में
                           मवाद ---

 
                           सुबह से ही
                           सीमेंट की ऊंची टंकी पर बैठकर
                           सूरज
                           करता है मुखारी 
                           नहाता है दिनभर --

                            चांद
                           उल्लूओं की बारात में
                           नाचता है रातभर --  
 
                            गिट्टियों की शक्ल में
                            बिक रहें पहाड़ों की कराह
                            नहीं सुनी किसी ने
                            टूट कर गिर रहें हैं
                            पहाड़
                            कच्ची बस्तियों में ----
 
                            दब चुकी बस्ती में
                            कुछ नहीं बचा
                            बस बच्चों की
                            किताबें खुली मिली ------
                                
                                                      "ज्योति खरे"

चित्र 
गूगल से साभार




 

सोमवार, जुलाई 21, 2014

नदारत हो जायेगी धूप ------


 
 
 
                         काले वहशी बादलों का झुंड
                         रेशमी चादर में लिपटी
                         मासूम धूप को
                         खोंदता,लूटता
                         गरजता, धड़धड़ाता
                         अपनी उत्तेजनाओं को बरसाता  
                         चला जाता है-----
 
                         देखकर खरोंची देह
                         कराहती,सिसकती
                         मासूम धूप
                         उंगलियां चटकाती
                         दे रही जी भर कर गाली
                         मादरजात
                         कलमुंहे बादल
                         टपकाकर चले गये
                         काली बूंदें -----
 
                          बरसा लो
                          अपने भीतर का
                          कसैला चिपचिपा पानी
                          नियम के विरुद्ध जाने का परिणाम
                          आज नहीं तो कल
                          भुगतना पड़ेगा------
 
                          नदारत हो जायेगी जिस दिन ये धूप
                          धरती पर जिया जा रहा बेहतर जीवन
                          अंधेरों की तहो में
                           समा जायेगा
                           बादल
                           बूंद बूंद बरसने
                           तरस जायेगा-------
                                                     "ज्योति खरे"

शुक्रवार, जून 20, 2014

फुरसतिया बादल ------

 
 
                         बजा बजा कर
                         ढोल नगाड़े
                         फुरसतिया बादल आते
                         बिजली के संग
                         रास नचाते
                         बूंद बूंद चुचुआते-----
 
                         कंक्रीट के शहर में
                         ऋतुयें रहन धरी
                         इठलाती नदियों में
                         रोवा-रेंट मची
                         तर्कहीन मौसम अब
                         तुतलाते हकलाते ------
 
                         चुल्लू जैसे बांधों में
                         मछली डूब रही
                         प्यासे जंगल में पानी
                         चिड़िया ढूंढ रही
                         प्यासी ताल-तलैयों को
                         रात-रात भरमाते ------

                                                         "ज्योति खरे"

सोमवार, जून 02, 2014

जेठ मास में--------

     
                             अनजाने ही मिले अचानक 
                             एक दोपहरी जेठ मास में
                             खड़े रहे हम बरगद नीचे
                             तपती गरमी जेठ मास में-----

                             प्यास प्यार की लगी हुई
                             होंठ मांगते पीना
                             सरकी चुनरी ने पोंछा 
                             बहता हुआ पसीना
                             रूप सांवला हवा छू रही
                             बेला महकी जेठ मास में-----

                             बोली अनबोली आंखें
                             पता मांगती घर का
                             लिखा धूप में उंगली से
                             ह्रदय देर तक धड़का
                             कोलतार की सड़कों पर   
                             राहें पिघली जेठ मास में-----     

                             स्मृतियों के उजले वादे
                             सुबह-सुबह ही आते
                             भरे जलाशय शाम तलक
                             मन के सूखे जाते
                             आशाओं के बाग़ खिले जब 
                             यादें टपकी जेठ मास में-----

                                                           "ज्योति खरे" 

 चित्र--- गूगल से साभार

 
 

 

बुधवार, मई 21, 2014

नीम कड़वी ही भली------

 
 
 
 
                        दीवारों में घर की जब से
                        होने लगी है कहासुनी
                        चाहतों ने डर के मारे
                        लगा रखी है सटकनी----
 
                        लौटा वर्षों बाद गांव में
                        सहमा सा चौपाल मिला
                        रात भर अम्मा की बातें
                        आंख ने रोते सुनी----
 
                        प्यार का रिश्ता सहेजे
                        धड़कनों को साथ लाया
                        चौंक कर देखा मुझे और
                        खिलखिलाती चलते बनी----
 
                       सभ्यता का पाठ पढ़ने
                       दौड़कर बचपन गया था
                       आज तक कच्ची खड़ी है
                       वह इमारत अधबनी----
 
                       टाट पर बैठे हुए हैं
                       भूख से बेहाल बच्चे
                       धर्म की खिचड़ी परोसी
                       खैरात वाली कुनकुनी----
 
                       नीम कड़वी ही भली
                       रोग की शातिर दवा है
                       दर्द थोड़ा ठीक है
                       तबियत लेकिन अनमनी-----
 
                                                       "ज्योति खरे" 
 

शनिवार, मई 10, 2014

कोई आयेगा ------

माँ दिवस पर
***************
   
                                     कोई आयेगा
                  ----------------------
                                बीनकर लाती हैं 
                                जंगल से
                                कुछ सपने
                                कुछ रिश्ते
                                कुछ लकड़ियां--
                                
                                टांग देती हैं
                                खूटी पर सपने
                                सहेजकर रखती हैं आले में
                                बिखरे रिश्ते
                                डिभरी की टिमटिमाहट मेँ
                                टटोलती हैं स्मृतियां--
                                
                                बीनकर लायीं लकड़ियों से
                                फिर जलाती हैं
                                विश्वास का चूल्हा
                                कि कोई आयेगा
                                और कहेगा
                                अम्मा
                                तुम्हे लेने आया हूं
                                घर चलो
                                बच्चों को लोरियां सुनाने------


                                                          "ज्योति खरे"







शनिवार, अप्रैल 26, 2014

और एक दिन

 
 
 
                                         घंटों पछाड़कर फींचती है
                                 खंगारकर निचोड़ती हुई
                                 बगरा देती है
                                 घाट के पत्थरों पर
                                 सूखने
                                 अपने कपड़े
                                            
                                 जैसे रात में पछाड़कर कलमुँहो ने
                                 बगरा दी थी देह
 
                                 बैठकर घाट पर उकडू
                                 मांजने लगी
                                 तम्बाखू की दुर्गन्ध से भरे दांत
                                 दारु की कसैली भभकती
                                 लार से भरी जीभ
                                 देर तक करती रही कुल्ला
 
                                  उबकाई खत्म होते ही
                                  बंद करके नाक
                                  डूब गयी नदी में
                                  कई डुबकियों के बाद
                                  रगड़कर देह में साबुन
                                  छुटाने लगी
                                  अंग अंग में लिपटा रगदा
 
                                  नदी बहा तो ले जाती है रगदा
                                  नहीं बहा पाती
                                  दरिंदों की भरी गंदगी
                                  नदी तो खुद छली जाती है
                                  पहाड़ों की रगड़ खाकर

 
                                  हांफती,कांपती
                                  चढ़ रही है घाट की सीढ़ियां
                                  जैसे चढ़ती है एक बुढ़िया
                                  मंदिर की देहरी
 
                                   गूंज रही है
                                   उसके बुदबुदाने,बड़बड़ाने की आवाज
                                   जब तक जारी रहेंगी
                                   बतौलेबाजियां
                                   घाट की सीढ़ियां इसी तरह
                                   रोती रहेंगी
                                   और एक दिन
                                   सूख जाएगी नदी
                                   रगदा बहाते बहाते ------

                                                       "ज्योति खरे"


 

सोमवार, फ़रवरी 03, 2014

वाह !! बसंत--------

 
                     अच्छा हुआ
                     इस सर्दीले वातावरण में
                     लौट आये हो--
 
                     बदल गई
                     बर्फीले प्रेम की तासीर
                     जमने लगीं
                     मौसम की नंगी देह पर
                     कुनकुनाहट-----
 
                     लम्बे अवकाश के बाद
                     सांकल के भीतर
                     होने लगी खुसुर-पुसुर
                     इतराने लगी दोपहर
                     गुड़ की लईया चबाचबा कर-----

 
                     वाह! बसंत
                     तुम अच्छे लगते हो
                     प्रेम के गीत गाते----

                                       "ज्योति खरे" 

चित्र- गूगल से साभार